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________________ नायाधम्मकहाओ निच्चले निष्फदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ ।। ७९. तए गं से पिसावरूवे अरहण्णमं जाहे नो संचाएह निधाओ पावयणाओ चालित वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे संते तंते परितंते निव्विण्णे तं पोयवहणं सणियं-सणियं उवरिं जलस्स ठवेइ, ठवेत्ता तं दिव्वं पिसायरूवं पहिसाहरेड, पहिसाहरेत्ता दिव्यं देवरूवं विउव्वइ-अंतलिक्खपडिवन्ने संखिखिणीयाई दसद्धवण्णाई वत्थाई पवरपरिहिए अरहण्णगं समणोवासगं एवं क्यासी हं भो अरहणगा! समणोवासया! धन्नेसि गं तुमं देवागुप्पिया! पुण्णेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! कयत्वेति णं तुम देवाप्पिया! कयलक्खणेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! सुलदृधे णं तव देवापिया! माणुस्सए जम्मजीवियफले, जस्स णं तव निग्ांचे पावणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया । -W एवं खलु देवाणुप्पिया! सक्के देविदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिस विमाणे सभाए सुहम्माए बहूणं देवाणं मज्झगए महया महया संदेणं एवं आइक्लड, एवं भासेइ, एवं पण्णवे एवं परूवे एवं खलु देवा! जंबूदीवे दीवे भारहे वाले चंपाए नयरीए अरहण्णए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे । नो खलु सक्के केणइ देवेण वा दाणवेणवा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधब्बेण वा निगंधाओं पाक्यणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा । तए णं अहं देवाप्पिया! सक्करस देविंदस्स देवरण्णो नो एवम सद्दहामि, पत्तियामि, रोएमि तए णं मम इमेवारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थर मगोगए संकपे समुष्यजित्यागच्छामि णं अहं अरहण्णगस्स अंतियं पाउब्भवामि, जाणामि ताव अहं अरहण्णगं-- किं पियधम्मे नो पिपाम्मे दधम्मे नो दधम्मे? सीत-व्यय-गुण- वेरमणपच्चक्लाण-पोसहोववासाई किं चाले नो चालेड? सोभेड नो खोइ ? खडेइ नो खडेइ ? भंजेइ नो भंजेइ ? उज्झइ नो उज्झइ ? परिच्चयइ नो परिच्चयइ त्ति कट्टु एवं सपेहेमि, सपेहेत्ता ओहिं पज्जामि, परंजित्ता देवाणुप्पियं ओहिणा आभोएमि, आभोएत्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमामि उत्तरवेउब्वियं रूवं विव्यामि विउब्वित्ता ताए उक्किट्ठाए देवगईए जेणेव लवणसमुद्दे जेणेव देवाणुप्पिए लेगेव उपागच्छामि, उवागच्छित्ता देवाप्पियस्स उवसग्गं करेमि, नो चेवणं देवाणुप्पिए भीए तत्ये चलिए संभ आउले उब्विणे भिण्णमुहराम नवणवण्णे दोणविमणमाणसे जाए। तं जं णं सक्के देविदे देवराया एवं वयइ, सच्चे णं एसमट्ठे । तं दि गं देवाणुप्पियस्स इड्डी जुई जसो बलं वीरियं पुरिसकार- परक्कमे तद्धे पत्ते अभिसमण्णागए। तं सामेमि णं देवाणुप्पिया । खमेसु णं देवाणुप्पिया! संतुमरिहसि णं देवाणुप्पिया! नाइ भुज्जो एवंकरणयाए ति कट्टु पंजलिउडे पायवडिए एयमहं विणएणं भुज्जो - भुज्जो खामेइ, अरहण्णगस्स य दुवे कुंडलजुयले दलय, Jain Education International १९३ -- अष्टम अध्ययन : सूत्र ७८-७९ अर्हन्नक निश्चल, निःस्पन्द और मौन भाव से धर्म्य ध्यान में लीन हो गया। ७९. वह पिशाच रूप अर्हन्नक को निर्ग्रन्ध प्रवचन से चलित, क्षुब्ध और विपरीत परिणाम वाला नहीं कर पाया, तो उसने श्रान्त, क्लान्त, परिक्लान्त और खेद खिन्न होकर उस जहाज को धीरे-धीरे पानी पर रख दिया। रखकर उस दिव्य पिशाच रूप को प्रतिसंहृत किया । प्रतिसंहत कर दिव्य देवरूप की विक्रिया की छोटी-छोटी घटिकाओं से युक्त सुन्दर पंधर वस्त्र पहने हुए वह अन्तरिक्ष में स्थित हो पंचरंगे अर्हन्नक श्रमणोपासक से इस प्रकार बोला हे अर्हन्नक! श्रमणोपासक! I -- धन्य हो तुम देवानुप्रिय! पुण्यशाली हो तुम देवानुप्रिय ! कृतार्थ हो तुम देवानुप्रिय! कृतलक्षण हो तुम देवानुप्रिय! तुमने ही मनुष्य के जन्म और जीवन का फल पाया है देवानुप्रिया जो तुम्हें निर्बन्ध प्रवचन में इस प्रकार की प्रतिपत्ति उपलब्ध है, प्राप्त और अभिसमन्वागत है । देवानुप्रिय! देवेन्द्र देवराज शक ने सौधर्म कल्प, सौधर्मावतंसक विमान और सुधर्मासभा में बहुत से देवों के मध्य ऊंचे-ऊंचे शब्द से इस प्रकार आख्यान किया, भाषण किया, प्रज्ञापना की और प्ररूपण किया - हे देवो! जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और चम्पानगरी में जीव और अजीव का ज्ञाता अर्हन्नक नाम का श्रमणोपासक रहता है। उसे कोई देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गन्धर्व निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलित, क्षुब्ध और विपरीत परिणाम वाला नहीं कर सकता। देवानुप्रिय ! देवेन्द्र, देवराज शक्र के इस कथन पर मुझे न श्रद्धा हुई, न प्रतीति हुई और न रुचि हुई । तब मेरे मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-- मैं जाऊं, अर्हन्नक के समक्ष प्रकट होकर उसके सम्बन्ध में यह जानूं-- अर्हन्नक प्रियधर्मा है अथवा प्रियधर्मा नहीं है ? वह दृढधर्मा है अथवा दृढधर्मा नहीं है? वह शील, व्रत, गुण, विरमण, प्रत्यास्थान, पौषधोपवास से चलित होता है अथवा नहीं? शुब्ध होता है अथवा नहीं? उनका खंडन करता है अथवा नहीं? उनका भञ्जन करता है अथवा नहीं? उनका त्याग करता है अथवा नहीं? उनका परित्याग करता है अथवा नहीं? मैंने इस प्रकार की सप्रेक्षा की, सप्रेक्षा कर अवधिज्ञान का प्रयोग किया प्रयोग कर देवानुप्रिय को अवधिज्ञान से जाना। जानकर ईशानकोण में गया। उत्तर- वैक्रिय रूप की विक्रिया की । विक्रिया कर उस उत्कृष्ट देव- गति से जहां लवण समुद्र था और जहां देवानुप्रिय था वहां आया। वहां आकर देवानुप्रिय के सामने उपसर्ग उपस्थित किया किन्तु देवानुप्रिय भीत त्रस्त, चलित, सम्भ्रान्त, आकुल और उद्विग्न नहीं हुए। न तुम्हारे मुंह का रंग बदला और न आंखों का वर्ण । तुम अदीन और अनातुर मन रहे । अतः देवेन्द्र, देवराज शक्र ने जो कहा, वह अर्थ सत्य है। मैंने देख लिया है देवानुप्रिय! तुमने ऋद्धि, धुति, यश, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम को उपलब्ध प्राप्त और अभिसमन्वागत किया है। अतः मैं खमाता हूं देवानुप्रिय ! क्षमा करें देवानुप्रिय ! तुम क्षमा कर , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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