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________________ १९२ अष्टम अध्ययन : सूत्र ७४-७८ पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं न चालेसि न खोभेसि न खडेसि न भंजेसि न उज्झसि न परिच्चयसि, तो ते अहं एवं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेण्हामि, गेण्हित्ता सत्तद्वतलप्पमाण-मेत्ताई उडढं वेहासं उव्विहामि अंतोजलसि निव्वोलेमि, जेणं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि ।। नायाधम्मकहाओ प्रत्याख्यान, पौषधोपवास से चलित नहीं होता, क्षुब्ध नहीं होता, तूं इसका खण्डन, भजन, त्याग और परित्याग नहीं करता तो मैं तेरे इस जहाज को इन दो अंगुलियों से पकड़ता हूं। पकड़कर सात-आठ तल-प्रमाण ऊपर आकाश में उछालता हूं और फिर समुद्र में डुबोता हूं जिससे तूं आर्त, दुःखार्त्त और वासना से आर्त हो२० असमाधि को प्राप्त कर असमय में ही मृत्यु को प्राप्त करेगा। ७५. तए णं अरहण्णगे समणोवासए तं देवं मणसा चेव एवं वयासी--अहं णं देवाणुप्पिया! अरहण्णए नाम समणोवासए अहिगयजीवाजीवे। नो खलु अहं सक्के केणइ देवेण वा दाणवेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, तमं णं जा सद्धा तं करेहि त्ति कटु अभीए जाव अभिन्नमुहराग-नयणवण्णे अदीण-विमणमाणसे निच्चले निप्फदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ।। ७५. उस अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस देव को मन ही मन इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! मैं जीव और अजीव का ज्ञाता अर्हन्नक नाम का श्रमणोपासक हूं। मैं किसी भी देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग या गन्धर्ब द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलित, क्षुब्ध और विपरीत परिणाम वाला नहीं हो सकता। तुम्हारी जैसी रुचि हो, करो--ऐसा कहकर वह अभीत रहा यावत् न उसके मुंह का रंग बदला, न आंखों का वर्ण। वह अदीन और अनातुर मन वाला अर्हन्नक निश्चल, नि:स्पन्द और मौन भाव से धर्म्य-ध्यान में लीन हो गया। ७६. तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहण्णगं समणोवासगं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी--हंभो अरहण्णगा! जाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ॥ ७६. उस दिव्य पिशाच रूप ने अर्हन्नक श्रमणोपासक से दूसरी बार, तीसरी बार भी इस प्रकार कहा--अरे! ओ! अर्हन्नक! यावत् वह धर्म्य-ध्यान में लीन हो गया। ७७. तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहण्णगं धम्मज्झाणोवगयं पासइ, ७७. उस दिव्य पिशाच रूप ने अर्हन्नक श्रमणोपासक को धर्म्य-ध्यान में पासित्ता बलियतरागं आसुरत्ते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं लीन देखा। लीन देखकर उसने प्रबल क्रोध से तमतमाते हुए उस गेण्हइ, गेण्हित्ता सत्तट्ठतल-प्पमाणमेत्ताई उड्ढे वेहासं उव्विहइ, जहाज को दो अंगुलियों से पकड़ा। पकड़कर सात-आठ तल-प्रमाण उन्विहित्ता अरहण्णगं एवं वयासी--हंभो अरहण्णगा! ऊपर आकाश में उठाया। उठाकर अर्हन्नक से इस प्रकार बोला--अरे! अपत्थियपत्थया! नो खलु कप्पइ तव सील-व्वय-गुण-वेरमण- ओ! अर्हन्नक! अप्रार्थित का प्रार्थी! तेरे शील, व्रत, गुण, विरमण, पच्चक्खाण-पोसहोववासाइंचालित्तए वा खोभित्तए वा खंडित्तए प्रत्याख्यान, पौषधोपवास-इनसे तुझको चलित नहीं किया जा सकता, वा भंजित्तए वा उज्झित्तए वा परिच्चइत्तए वा । तं जइ णं तुमं क्षुब्ध नहीं किया जा सकता। इनका खण्डन, भंजन, त्याग और सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइंन चालेसि परित्याग नहीं कराया जा सकता। अत: यदि तू अपने शील, व्रत, गुण, न खोभेसि न खडेसि न भंजेसि न उज्झसि न परिच्चयसि, तो विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास--इनसे चलित नहीं होता, क्षुब्ध नहीं ते अहं एवं पोयवहणं अंतो जलसि निब्बोलेमि, जेणं तुम अट्ट-दुहट्ट- होता। तू इनका खण्डन, भञ्जन, त्याग और परित्याग नहीं करता तो वसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि।। मैं तेरे इस जहाज को पानी में डूबोता हूं, जिससे तूं आर्त, दुःखात और वासना से आर्त हो, असमाधि को प्राप्त कर, असमय में ही मृत्यु को प्राप्त करेगा। ७८. तए णं से अरहण्णगे समणोवासए तं देवं मणसा चेव एवं वयासी--अहं णं देवाणुप्पिया! अरहण्णए नाम समणोवासए-- अहिगयजीवाजीवे। नो खलु अहं सक्के केणइ देवेण वा दाणवेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, तुमं णं जा सद्धा तं करेहि त्ति कटु अभीए जाव अभिन्नमुहराग-नयणवण्णे अदीण-विमण-माणसे ७८. उस अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस देव को मन ही मन इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! मैं जीव और अजीव का ज्ञाता अर्हन्नक नाम का श्रमणोपासक हूं। मैं किसी भी देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग या गन्धर्व के द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलित क्षुब्ध और विपरीत परिणाम वाला नहीं हो सकता। तुम्हारी जैसी रुचि हो, करो--ऐसा कहकर वह अभीत रहा यावत् न उसके मुंह का रंग बदला, न आंखों का वर्ण। वह अदीन और अनातुर मन वाला Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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