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________________ १८२ अष्टम अध्ययन : सूत्र २४-२७ तवोकम्मं दोहिं संवच्छरेहिं अट्ठवीसाए अहोरत्तेहिं अहासुत्तं जाव आणाए आराहेता जेणेव थेरे भगवते तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता थेरे भगवते वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामो णं भंते! महालयं सीहनिक्कीलियं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। तहेव जहा खुड्डागं, नवरं--चोत्तीसइमाओ नियत्तइ। एगाए परिवाडीए कालो एगेणं संवच्छरेणं छहिं मासेहिं अट्ठारसहि य अहोरत्तेहिं समप्पेइ । सव्वंपि (महालयं?) सीहनिक्कीलियं छहिं वासेहिं दोहिं मासेहिं बारसहि य अहोरत्तेहिं समप्पेइ। नायाधम्मकहाओ वर्ष अठावीस अहोरात्र तक सूत्रानुसार यावत् आज्ञा से आराधना कर जहां स्थविर भगवान थे, वहां आए। वहां आकर स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले--भन्ते! हम चाहते हैं महासिंहनिष्क्रीड़ित तप:कर्म स्वीकार कर विहार करें। वह वैसे ही होता है जैसे लघु। विशेष--उसका निवर्तन चौतीसवें भक्त से होता है। एक परिपाटी का काल एक वर्ष, छ: मास और अठारह अहोरात्र से सम्पन्न होता है। सम्पूर्ण (महा?) सिंहनिष्क्रीड़ित तप छह वर्ष, दो मास और बारह अहोरात्र से सम्पन्न होता है। २५. तएणं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिक्कीलियं २५. तब महाबल प्रमुख वे सातों अनगार महासिंहनिष्क्रीड़ित तप:कर्म की अहासुत्तं जाव आराहिता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति, सूत्रानुसार यावत् आराधना कर जहां स्थविर भगवान थे, वहां आए। उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता वहां आकर स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। बहूणि चउत्थ-छट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं वन्दना नमस्कार कर अनेक चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, भावमाणा विहरति॥ दशम-भक्त, द्वादश-भक्त, मासिकं और पाक्षिक तप: कर्म से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। समाहिमरण-पदं २६. तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं उरालेणं तवोकम्मेणं सुक्का भुक्खा निम्मंसा किडिकिडियाभूया अट्ठिचम्मावणद्धा किसा धमणिसंतया जाया यावि होत्था। जहा खंदओ नवरं--थेरे आपुच्छित्ता चारुपव्वयं सणियं-सणियं दुरुहंति जाव दोमासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता, सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेएत्ता, चतुरासीइं वाससयसहस्साई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, चुलसीइं पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववण्णा । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं महब्बलवज्जाणं छण्हं देवाणं देसूणाई बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई। महब्बलस्स देवस्स य पडिपुण्णाई बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई। समाधिमरण-पद २६. उस उदार तप:कर्म से महाबल प्रमुख सातों अनगार सूखे, रूखे और मांस रहित हो गये। उठने-बैठने में कट-कट शब्द होने लगा। वे चर्म मढ़ा हड्डियों का ढांचा भर और कृश होने से मात्र धमनियों के जाल जैसे रह गये, जैसे--स्कन्दक।* विशेष-स्थविरों से पूछकर धीरे-धीरे चारु-पर्वत पर चढ़े यावत् दो महीने की संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर अनशन काल में एक-सौ बीस भक्तों का परित्याग कर चौरासी लाख वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर चौरासी लाख पूर्व की परिपूर्ण आयु को भोग, जयन्त विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए। वहां कुछ देवों की स्थिति बत्तीस सागरोपम बतलाई गयी है। उनमें महाबल के अतिरिक्त छह देवों की स्थिति बत्तीस सागरोपम से कुछ कम है। महाबल देव की स्थिति परिपूर्ण बत्तीस सागरोपम है। पच्चायाति-पदं २७. तए णं ते महब्बलवज्जा छप्पि देवा जयंताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विसुद्धपिइमाइक्सेसु रायकुलेसु पत्तेयं-पत्तेयं कुमारत्ताए पच्चायाया, तं जहा-- पडिबुद्धि इक्खागराया, चंदच्छाए अंगराया, प्रत्यागमन-पद २७. महाबल के अतिरिक्त वे छह देव आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनन्तर जयन्त देवलोक से च्युत हो पुन: इसी जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में, विशुद्ध पितृ-मातृ-वंश वाले राजकुलों में एक-एक कुमार के रूप में जन्मे, जैसे-- इक्ष्वाकुराज प्रतिबुद्धि। अंगराज चन्द्रच्छाय। * भगवती २/१६४-६८1 ज्ञाताधर्मकथा १/१/२०३-२०६ मेघकुमार का वर्णन । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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