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________________ २२८ नवम अध्ययन : सूत्र १०-१३ चवणकाले देववरबहू, संचुण्णियकट्ठ-कूवरा, भग्गमेढि-मोडिय- सहस्समाला, सूलाइय-वंकपरिमासा, फलहंतर-तडतडेंत-फुटुंतसंधिक्यिलंत-लोहकीलिया, सव्वंग-वियंभिया, परिसडियरज्जुविसरंतसव्वगत्ता, आमगमल्लगभूया, अकयपुण्ण-जणमणोरहो विव चिंतिज्जमाणगुरुई हाहाक्कय-कण्णधार-नाविय-वाणियगजणकम्मकर-विलविया नाणाविह-रयण-पणिय-संपुण्णा बहूहिं पुरिससएहिं रोयमाणेहिं कंदमाणेहिं सोयमाणेहिं तिप्पमाणेहिं विलवमाणेहिं एगं महं अंतोजलगयं गिरिसिहरमासाइत्ता संभग्गकूवतोरणा मोडियज्झयदंडा वलयसयखंडिया करकरस्स तत्थेव विद्दवं उवगया। नायाधम्मकहाओ परिश्रान्त पुत्रवती प्रौढ़ महिला की भांति नि:श्वास छोड़ रही थी। च्यवन काल में तपश्चरण जनित परिभोगों के क्षीण होने पर (चिन्ताकुल) प्रवर देववधू की भांति चिन्ता कर रही थी। उस नौका के काष्ठ और मुखभाग चूर चूर हो गए। मेढ़ी भग्न हो गई। अकस्मात उसकी छत टूट गई। परिमर्श--नौका का काष्ठ वक्र और शूल जैसा हो गया। फलक के विवरों में तड़ तड़ आवाज करती हुई संधियां टूट गई। संधियों में लगी लोह की कीलें निकल गयी। उसके सारे अंग खुल गये। फलक को बांधकर रखनेवाली रस्सियां टूटकर गिर गई। फलत: नौका के सारे अवयव चरमरा गए। वह कच्ची मिट्टी के शिकोरे के समान विगलित हो गई। पुण्यहीन व्यक्ति के मनोरथ की भांति चिन्तनीय होने से भारी हो गयी। उसमें हाहाकार करते कर्णधारों, नाविकों, व्यापारियों और कर्मचारियों का विलाप होने लगा। नाना प्रकार के रत्नों तथा क्रयाणक से भरी हुई वह नौका रोते-चिल्लाते, चिन्ता करते, आंसू बहाते और विलपते हुए अनेक शत-पुरुषों सहित जलगत एक विशाल गिरि-शिखर से टकरा गयी। उसका मस्तूल और तोरण भग्न हो गया। ध्वज दण्ड टूट गए। वह सैंकड़ों वलयाकार टुकड़ों में बिखर गयी और कर-कर शब्द करती हुई वहीं डूब गयी। ११. तए णं तीए नावाए भिज्जमाणीए ते बहवे पुरिसा विपुल-पणिय- भंडमापाए अंतोजलंमि निमज्जाविया यावि होत्था। १. उस भग्न नौका ने उन बहुत से पुरुषों को जल में डुबो दिया जो विपुल क्रयाणक के पात्र लेकर आए थे। १२. तए णं ते मागंदिय-दारगा छेया दक्खा पत्तट्ठा कुसला मेहावी निउणसिप्पोवगया बहूस पोयवहण-संपराएस कयकरणा लद्धविजया अमूढ़ा अमूढहत्था एगं महं फलगखंडं आसार्देति॥ १२. तब छेक, दक्ष, अनुभवी, कुशल, मेधावी, तैरने की कला में निपुण, बहुत से पोत-वहन के विघ्नों को पार करने के कारण अनुभव प्राप्त, विजयी, अमूढ और अमूढ़ हाथों वाले उन माकन्दिक-पुत्रों ने एक विशाल फलक-खण्ड को प्राप्त किया। रयणदीव-पदं १३. जंसि च णं पएसंसि से पोयवहणे विवण्णे तंसि च णं पएसंसि एगे महं रयणदीवे नाम दीवे होत्था--अणेगाई जोयणाई आयामविक्खंभेणं अणेगाई जोयणाई परिक्खेवेणं नाणामसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। तस्स बहुमझदेसभाए, एत्थ णं महं एगे पासायवडेंसए यावि होत्था--अब्भुग्गयमूसिय-पहसिए जाव सस्सिरीयरूवे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। तत्थ णं पासायवडेंसए रयणदीव-देवया नाम देवया परिवसइ--पावा चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया।। तस्स णं पासायवडेंसयस्स चउद्दिसिं चत्तारि वणसंडा-किण्हा किण्होभासा।। रत्नद्वीप-पद १३. जिस प्रदेश में वह पोत-वहन भान हुआ था, उस प्रदेश में एक महान रत्नद्वीप नाम का द्वीप था। उसका आयाम विष्कम्भ अनेक योजन परिमित था। उसकी परिधि भी अनेक योजन-परिमित थी। वह नाना द्रुम खण्डों से परिमंडित, श्रीसम्पन्न, चित्त को आल्हादित करने वाला, दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण था। उस द्वीप के बीचों-बीच एक महान, श्रेष्ठ प्रासाद भी था। वह अभ्युद्गत, समुन्नत, प्रहसित यावत् श्री-सम्पन्न, चित्त को आल्हादित करने वाला, दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण था। उस श्रेष्ठ प्रासाद में 'रत्न द्वीप देवता' नाम की एक देवी रहती थी। वह दुष्ट, चण्ड, रौद्र, क्षुद्र और साहसिक थी। उस श्रेष्ठ प्रासाद के चारों ओर कृष्ण और कृष्णप्रभा वाले चार वनखण्ड थे। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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