SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नायाधम्मकहाओ २२७ ६. तए गं ते मागंदिय दारगा अम्मापिपरो दोच्चपि तच्चपि एवं क्पासी एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! एक्कारसवाराज लवणसमुद्द पोयवहणेणं ओगाढा । सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि नियघरं हव्वमागया । तं सेयं खलु अम्हं अम्मयाओ! दुवालसपि लवणसमुद्र पोपवहणेणं ओगाहित्तए । ७. तए णं ते मार्गदिय दारए अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य आधवित्तए वा पण्णवित्तए वा ताहे अकामा चैव एवम अणुमण्णित्मा ।। ८. सए णं ते मार्गदिय दारगा अम्माषिकहिं अन्भणुष्णाया समाणा गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं व भंडगं गेण्डति, जहा अरहन्नगस्स जाव लवणसमुद्द बहूइं जोयणसयाइं ओगाढा ।। नावा-भंग-पदं ९. तए णं तेसिं मागंदिय- दारगाणं लवणसमुदं अणेगाइं जोयणसयाई ओगाणं समाणानं अनेगाई उपाइयसयाई पाउब्याई तं जहा-अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले धणियसद्दे कालियवाए जाव समुट्ठिए । १०. तए णं सा नावा तेणं कालियवाएणं आहुणिज्नमाणीआहुणिज्जमाणी संचालिज्जमाणी संचालिज्जमाणी संखोभिज्जमाणी- संखोभिज्जमाणी सलिलतिक्ख-वेगेहिं अइअट्टिज्जमाणीअइजट्टिज्जमानी कोड्रिमसि करतलाहते विव तिसए तत्येव तत्येव ओवयमाणी य उप्पयमाणी य, उप्पयमाणी विव धरणीयलाओ सिद्धविज्जा विज्जाहरकन्नगा, ओक्यमाणी विव गगणतलाओ भट्टविज्जा विज्जाहरकन्नगा, विपलायमाणी विव महागरुल-वेगवित्तासिय भुपगवरकन्नगा, धायमाणी विव महाजण रसियसवित्तत्था ठाणभट्ठा आसकिसोरी, निगुंजमाणी विव गुरुजणदिट्ठावराहा सुजणकुलकन्नगा, धुम्ममाणी विव वीचि -पहार-सयतालिया, गलिय-लंबणा विव गगणतलाओ, रोयमाणी विव सलिलगंधी- विप्पइरमाण पोरंसुवाएहिं नववहू उवरयभत्तुया, विलवमाणी विव परचक्करायाभिरोहिया परममहब्भयाभिदुया महापुरवरी, झायमाणी विव कवड-च्छोमण-पओगजुत्ता जोगपरिव्वाइया, नीससमाणी विव महाकंतार - विणिग्गय-परिस्संता परिणयवया अम्मया, सोयमाणी विव तव चरण- खीण- परिभोगा Jain Education International नवम अध्ययन सूत्र ५-१० पुत्रो! बारहवीं यात्रा में उपसर्ग भी होता है। अतः पुत्रो ! तुम दोनों बारहवीं बार पोत-वहन से लवण समुद्र का अवगाहन मत करो । तुम्हारे शरीर की व्यापत्ति न हो। ६. उन माकन्दिकपुत्रों ने दूसरी बार तीसरी बार भी माता-पिता से इस प्रकार कहा--माता-पिता! हमने ग्यारह बार पोत-वहन से लवण समुद्र का अवगाहन कर लिया। सभी जगह हमने प्रचुर मात्रा में धन कमाया, कृतकार्य हुए और निर्विघ्न रूप से हम पुनः अपने घर लौट आए। अतः माता-पिता! हमारे लिए उचित है हम बारहवीं बार भी पोत वहन से लवण समुद्र का अवगाहन करें। ७. माता-पिता माकन्दिक पुत्रों को बहुत-सी आख्यापनाओं और प्रज्ञापनाओं के द्वारा आस्थापित और प्रज्ञापित करने में समर्थ नहीं हुए तो उन्होंने न चाहते हुए भी अनुमति दे दी । ८. माता-पिता से अनुज्ञा प्राप्त कर माकन्दिक - पुत्रों ने गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रयाक (किराना) लिए। अन्नक की भांति यावत् वे लवण समुद्र में अनेक शत योजन तक पहुंच गए। नावा-भंग-पद ९. वे माकन्दिक - पुत्र जब लवण समुद्र में अनेक शत योजन तक पहुंच गये, तब उनके सामने अनेक शत उत्पात प्रादुर्भूत हुए, जैसे--अकाल में गर्जन, अकाल में विद्युत, अकाल में मेघ की गंभीर ध्वनि यावत् कालिक वात (तूफान उठा। १०. वह नौका उस कालिक वात से बार-बार कम्पित संचालित, संक्षुब्ध हो रही थी । पानी के तेज प्रवाह से बार-बार आक्रान्त होती हुई पक्के आंगन में करतल से आहत गेंद की भांति वहीं वहीं गिरकर उछल रही थी, विद्यासिद्ध विद्याधर- कन्या की भांति भूतल से ऊपर उछल रही थी, विद्याभ्रष्ट विद्याधर कन्या की भांति गगनतल से नीचे गिर रही थी । महागरुड़ की तेज गति से वित्रासित प्रवर नाग - कन्या की भांति इधर-उधर भाग रही थी । जन-समूह के कोलाहल से वित्रस्त स्थानभ्रष्ट अव-किशोरी की भांति दौड़ रही थी। गुरुजनों को अपराध का पता लग जाने के कारण (लज्जावनत) कुलीन - कन्या की भांति झुकी हुई थी । लहरों के सैकड़ों प्रहारों से प्रताड़ित होकर कांपती हुई, बन्धन मुक्त होकर मानों गगनतल से गिर रही थी । जल से भीगी हुई गांठों से टपकते जल-कणों के कारण किसी परित्यक्ता नवोढ़ा की भांति रो रही थी परम महाभय से अभिद्भुत होने के कारण शत्रु राजा की सेना से घिरी हुई महानगरी की भांति विलाप कर रही थी। कपट और छद्म प्रयोग से युक्त योग-परिव्राजिका की भांति ध्यान कर रही थी। महाकान्तार को पार करने के श्रम से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy