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________________ पांचवां अध्ययन : सूत्र ७०-७३ १४६ भंते ? जवणिज्जं ते (भंते ? ) ? अव्वाबाहं (ते भंते ? ) ? फासूयं विहारं (ते भंते ? ) ? ७१. तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारे सुएणं परिव्वायगेणं एवं वुत्ते समाणे सुयं परिव्वायगं एवं क्यासी--सुया! जत्तावि मे जवणिज्जं पि मे अब्याबाहं पि मे फासूयं बिहारं पि मे ।। -- ७२. तए गं से सुए बावच्चापुत्तं एवं क्यासी-किं ते भंते! जत्ता? सुया! जन् मम नाम दंसण चरित-तव-संजममाइएहिं जोएहिं जयणा, से तं जत्ता । से किं ते भंते! जवणिज्जं ? सुया! जवणिज्जे दुविहे पण्णले, तं जहा इंद्रियजवणिज्जे य नोइंदियजवणिज्जे य से किं तं इंदियजवणिज्जे ? - सुया! जण्णं ममं सोतिंदिय चक्खिदिय- घाणिदियजिब्भिंदिय - फासिंदियाइं निरुवहयाइं वसे वट्टंति से तं इंदियजवणिज्जे । से किं तं नोइंद्रियजयणिज्जे? सुया! जन्गं मम कोह- माण माया लोभा खीणा उवसंता नो उदयंति, से तं नोइंदियजवणिज्जे । से किं ते भंते! अव्वाबाहं ? सुया! जन्णं मम वाइय-पित्तिय-सिंभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायका नो उदीरेति, से तं अब्याबाहं । से किं ते भ! फासूर्य विहार? सुया! जणं आरामेसु उज्जाणेसु देउलेसु सभासु पवासु इत्थी - पसु -पंडग - विवज्जियासु वसहीसु पाडिहारियं पीढ-फलगसेज्जा संचारयं ओगिण्डित्ता गं विहरामि, से तं फासूयं विहारं ।। सरिसवयाणं भक्खाभक्ख-पदं ७३. सरिसवपा ते मते! किं भक्या? अभक्लेया? सुया! सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि । से केणद्वेगं भंते! एवं वुच्चइ - - सरिसवया भक्नेया वि अभक्खेया वि? सुया! सरिसक्या दुविहा पन्णत्ता, तं जहा मित्तसरिसवया य धण्णसरिसवया य । तत्थ णं जेते मित्तसरिसच्या ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा--सहजायया सहवड्डियया सहपंसुकीलियया, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्य णं जेते धण्णसरिसक्या ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा -- सत्यपरिणया य असत्यपरिणया य । तत्य णं जेते Jain Education International नायाधम्मकहाओ भंते! क्या तुम्हें यमनीय मान्य है? भंते! क्या तुम्हें अव्याबाध मान्य है ? भन्ते! क्या तुम्हें प्रासु विहार मान्य है ? ७१. शुक परिव्राजक के ऐसा कहने पर थावच्चापुत्र अनगार ने उससे इस प्रकार कहा -- शुक! मुझे यात्रा भी मान्य है, यमनीय भी मान्य है, अव्याबाध भी मान्य है और प्रासुक विहार भी मान्य है । ७२. शुक ने थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा- भंते! तुम्हारी यात्रा क्या है? शुक ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और संयम आदि योगों के साथ जो मेरी प्रयत्नशीलता (यतना) है, वह मेरी यात्रा है। भन्ते! तुम्हारा यमनीय क्या है ? शुक!, यमनीय दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे--इन्द्रिय यमनीय और नोइन्द्रिययमनीय। वह इन्द्रिययमनीय क्या है? शुक जो श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय निरुपहत (परिपूर्ण) होकर भी मेरे वश में रहते हैं, वह इन्द्रिय-यमनीय है। वह नोइन्द्रियमनय क्या है ? शुक! मेरे जो क्रोध, मान, माया और लोभ क्षीण या उपशान्त होने से उदय में नहीं आते, वह नोइन्द्रिययमनीय है। भन्ते! वह अव्याबाध क्या है ? शुक! जो मेरे वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक और सान्निपातिक--ये विविध रोग और आतंक उदीर्ण नहीं होते, वह अव्याबाध है । भन्ते! वह प्राशुक विहार क्या है ? शुक! जो मैं आरामों, उद्यानों देवकुलों, सभाओं, प्रमाओं और स्त्री, तथा नपुंसक रहित वसतियों में प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक का ग्रहण कर विहार करता हूँ, वह प्रासुक विहार है। सरिसवय की भक्ष्याभक्ष्यता- पद ७३. भन्ते! तुम्हारे सरिसवय भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ? शुक! सरिसवय भक्ष्य भी हैं, अभक्ष्य भी हैं। भन्ते! किस अर्थ से ऐसा कहते हैं--सरिसवय भक्ष्य भी हैं, अभक्ष्य भी हैं? शुक! सरिसक्य के दो प्रकार प्राप्त हैं, जैसे मित्र सरिसवय (सदृशवयसाः सवयाः) और धान्य सरिसवय ( सर्षप) उनमें जो मित्र सरिसवय हैं, वे तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे सहजात, सहवर्द्धित, सहपांशुकीडित वे भ्रमण निर्ग्रन्थों के अभक्ष्य हैं। 1 उनमें जो धान्य सर्षप हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं--जैसे शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत उनमें वे जो अशस्त्रपरिणत हैं, वे I For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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