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________________ नायाधम्मकहाओ १४५ धम्मे पडिवण्णे, तं सेयं खलु मम सुदंसणस्स दिढेि वामेत्तए पुणरवि सोयमूलए धम्मे आघवित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, सपेहेत्ता परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं जेणेव सोगंधिया नगरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परिव्वायगाक्सहसि भंडगनिक्खेवं करेइ, करेत्ता धाउरत्त-वत्थ-पवर-परिहिए पविरल-परिव्वायगेणं सद्धिं संपरिवडे परिव्वायगावसहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सोगंधियाए नयरीए मज्झमझेणं जेणेव सुदंसणस्स गिहे जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छइ ।। पांचवां अध्ययन : सूत्र ६५-७० स्वीकार कर लिया। अत: मेरे लिए उचित है, मैं सुदर्शन की दृष्टि को बदल कर पुन: शौचमूलक धर्म का आख्यान करू--उसने ऐसी सप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर हजार परिव्राजकों के साथ जहाँ सौगन्धिका नगरी थी, जहाँ परिव्राजकों का मठ था, वहाँ आया। वहां आकर परिव्राजकों के मठ में अपने उपकरण रखे। उपकरण रखकर प्रवर गेरुए वस्त्र पहने। उसने कुछेक परिव्राजकों के साथ, उनसे परिवृत हो, परिव्राजकों के मठ से निर्गमन किया। निर्गमन कर सौगन्धिका नगरी के बीचों-बीच से गुजरता हुआ जहाँ सुदर्शन का घर था, जहाँ सुदर्शन था, वहाँ आया। ६६. तए णं से सुदंसणे तं सुयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो अब्भुटेइ न पच्चुग्गच्छइनो आढाइ नो वंदइ तुसिणीए संचिट्ठइ॥ ६६. सुदर्शन ने शुक को आते हुए देखा। उसे देखकर वह न आसन से उठा, न सामने गया। न उसे आदर दिया और न वंदना की। वह मौन रहा। ६७. तए णं से सुए परिव्वायए सुदंसणं अणन्भुट्ठियं पासित्ता एवं वयासी--तुमं णं सुदंसणा! अण्णया मम एज्जमाणं पासित्ता अन्भुट्टेसि पच्चुग्गच्छसि आढासि वंदसि, इयाणिं सुदंसणा! तुम मम एज्जमाणं पासित्ता नो अब्भुढेसि नो पच्चुग्गच्छसि नो आढासि नो वंदसि । तं कस्स णं तुमे सुदंसणा! इमेयारूवे विणयमूले धम्मे पडिवण्णे? ६७. सुदर्शन को बैठे हुए देखकर शुक परिव्राजक ने उससे इस प्रकार कहा--सुदर्शन! सदा तुम मुझे आते हुए देखकर आसन से उठते हो, सामने आते हो, मुझे आदर देते हो और वंदना करते हो। सुदर्शन! इस समय मुझे आते हुए देखकर तुम न आसन से उठे हो, न सामने आए हो, न मुझे आदर दे रहे हो और न वन्दना की। सुदर्शन! यह विशेष प्रकार का विनय मूल धर्म तुमने किससे स्वीकार कर लिया? ६८. तए णं से सुदंसणे सुएणं परिव्वायगेणं एवं वुत्ते समाणे आसणाओ अन्मुढेइ, अब्भुढेत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु सुयं परिव्वायगं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहओ अरिखनेमिस्स अंतेवासी थावच्चापुत्ते नामं अणगारे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए इह चेव नीलासोए उज्जाणे विहरइ । तस्स णं अंतिए विणयमूले घम्मे पडिवण्णे॥ ६८. शुक परिव्राजक के ऐसा कहने पर सुदर्शन आसन से उठा। उठकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अञ्जलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर शुक परिव्राजक से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! अर्हत अरिष्टनेमि के अंतेवासी थावच्चापुत्र नाम के अनगार क्रमश: संचार करते हुए, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए यहाँ आए हैं, वे यहीं नीलाशोक उद्यान में विहार कर रहे हैं। मैंने उनके पास विनयमूलक धर्म को स्वीकार किया है। ६९. तए णं से सुए परिव्वायए सुदंसणं एवं वयासी--तं गच्छामो णंसुदंसणा! तव धम्मायरियस्स थावच्चाफुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामो, इमाइंचणंएयारवाई अट्ठाई हेऊइंपसिणाइंकारणाइंवागरणाई पुच्छामो। तं जइ मे से इमाइं अट्ठाई हेऊइं पसिणाई कारणाई वागरणाई वागरेइ, तओ णं वदामि नमसामि । अह मे से इमाई अट्ठाई हेऊई पसिणाइंकारणाई वागरणाइंनो वागरेइ, तओ णं अहं एएहिं चेव अद्वेहिं हेऊहिं निप्पट्ठ-पसिणवागरणं करिस्सामि। ६९. शुक परिव्राजक ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा--सुदर्शन ! चलें, तुम्हारे धर्माचार्य थावच्चापुत्र के पास उपस्थित होकर उनसे ये विशेष प्रकार के अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण पूछे । यदि वह मेरे इन अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों का उत्तर दे सके तो मैं उन्हें वन्दना-नमस्कार करूं और यदि वे मेरे इन अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों का उत्तर न दे सके तो मैं इन्हीं अर्थों और हेतुओं से उन्हें निरुत्तर करूंगा। सुयस्स यावच्चापुत्तेण संवाद-पदं ७०. तए णं से सुए परिव्वायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्ठिणा सद्धिं जेणेव नीलासोए उज्जाणे जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता यावच्चापुत्तं एवं वयासी--जत्ता ते शुक का थावच्चापुत्र के साथ संवाद-पद ७०. तब शुक हजार परिव्राजकों और सुदर्शन सेठ के साथ जहाँ नीलाशोक उद्यान था, जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे वहां आया। आकर थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा--भते! क्या तुम्हें यात्रा मान्य हैं? Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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