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________________ ६२ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ६ नायाधम्मकहाओ वर्च का अर्थ है तेज, प्रभाव। जिसका व्यक्तित्व प्रभावशाली होता अभिनव कर्म परमाणुओं का अवरोधक है संयम। मोक्ष साधना में ये दोनों है, वह वर्चस्वी कहलाता है। वच्चंसी का वर्चस्वी रूप अधिक संगत है। उपादेय हैं। उक्त चारों शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग अलाक्षणिक है। १०. चरण प्रधान, करण प्रधान ७. यशस्वी जैसे तप: प्रधान, गुणप्रधान--ये आर्य सुधर्मा के विशेषण हैं वैसे ही यशस्वी का अर्थ है--प्रख्यात करण चरण से लेकर चरित्र शब्द तक प्रधान शब्द की योजना करने से करण-प्रधान, चरण प्रधान आदि इक्कीस विशेषण और बन जाते हैं। ८. क्रोध विजेता.....लोभ विजेता वृत्तिकार के अनुसार करण-प्रधान, चरण-प्रधान--ये सब गुण यहां क्रोध-विजेता आदि का प्रयोग उदय प्राप्त क्रोध, मान, माया पान की व्याख्या के अंग हैं।" और लोभ को विफल करने की अपेक्षा से हुआ है। क्रोध विजय की तीन भूमिकाएं हैं-- ११. करण १. क्षीणावस्था--इस भूमिका में क्रोध क्षीण हो जाता है। पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना आदि उत्तरगुणों को करण कहा २. शान्तावस्था--इस भूमिका में क्रोध शान्त रहता है। जाता है। ओघनियुक्ति में करण की समग्र परिभाषा उपलब्ध है। उसके ३. विफलावस्था--इस भूमिका में क्रोध का उदय होता है किन्तु अनुसार पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रिय-निरोध, प्रतिलेखन, संयम के कारण वह सफल नहीं हो पाता। क्रोध का आवेश आने पर गुप्ति और अभिग्रह--ये करण हैं।' अपशब्द का प्रयोग करना अथवा गाली देना, हाथ उठाना, मुक्का तानना-इन १२. चरण व्यवहारों से क्रोध सफल होता है। जो व्यक्ति उक्त व्यवहार नहीं करता, महाव्रत, श्रमणधर्म, संयम, वैयावृत्य आदि को चरण कहा जाता है।" उसका क्रोध विफल हो जाता है। ओघनियुक्ति के अनुसार व्रत, श्रमणधर्म, संयम, वैयावृत्य, ब्रह्मचर्य, वृत्तिकार ने लिखा है कि सुधर्मा स्वामी उदय प्राप्त क्रोध को विफल गुप्तियां, ज्ञानादित्रिक, तप और क्रोध आदि का निग्रह चरण है। कर देते थे इसीलिए उन्हें क्रोधजयी कहा जाता था। चरण और करण का अंतर स्पष्ट है--नित्यमनुष्ठानं चरणं यत्तु मानजयी आदि की व्याख्या भी इसी नय से की जा सकती है। प्रयोजनमापन्ने क्रियते तत्करणमिति । १२ दशवैकालिक में मूल गुण और उत्तर गुण रूप चारित्र को ही चर्या ९. तप से प्रधान, गुण से प्रधान कहा गया है। आर्य सुधर्मा का तप प्रधान था। गुण का अर्थ है--संयम के साधक गुण अथवा संयम-साधना से निष्पन्न गुण।' १३. निग्रह तप, नियम, संयम, स्वाध्याय--ये सब गुण हैं। यहां संयम गुण का निग्रह का अर्थ है--नियंत्रण की क्षमता का विकास । लौकिक पक्ष ही एक अंग है। आर्य सुधर्मा में इन गुणों का विशेष विकास था। में शासक द्वारा अपराधी लोगों का निग्रह किया जाता है। आध्यात्मिक जैन साधना पद्धति के मुख्य दो अंग हैं--संवर और निर्जरा। साधना के पक्ष में साधक के द्वारा इन्द्रियों का निग्रह किया जाता है। तप: प्रधान और गुणप्रधान-इन दोनों विशेषणों द्वारा ये ही दोनों सुधर्मा स्वामी का निग्रह प्रधान था। वृत्तिकार ने निग्रह का अर्थ अनाचार अंग अभिगृहीत हुए हैं। पूर्वबद्ध कर्मों के निर्जरण का हेतु है तप और प्रवृत्ति का निषेध किया है।" . १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८--वचो--वचनं सौभाग्याधुपेतं यस्यास्ति स वचस्वी; ___ अथवा वर्च:--तेज: प्रभाव इत्यर्थस्तद्वान् वर्चस्वी। २. वही--यशस्वी--ख्यातिमान्। ३. वही--क्रोधादिजय उदयप्राप्त क्रोधादि-विफलीकरणतोऽवसेयः । ४. वही-गुणा: संयमगुणाः। ५. वही--एतेन च विशेषणद्वयेन तप:संयमो पूर्वबद्धाभिनवयोः ___ कर्मणोर्निर्जरणानुपादानहेतू मोक्षसाधने मुमुक्षूणामुपादेयावुपदर्शितौ। ६. वही--यथा गुणशब्देन प्रधान-शब्दोत्तर-पदेन तस्य विशेषणमुक्तमेवं करणादिभिरेकाविंशत्या शब्दैरेकविशति-विशेषणान्यध्येयानि, तद्यथा-- करणप्रधानश्चरणप्रधानो यावच्चरित्रप्रधानः। ७. वही--गुणप्राधान्ये प्रपञ्चार्थमेवाह एवं करणे'-त्यादि । ८. वही--करणं पिण्डविशुद्धयादिः, यदाह 'पिंडविसोही समिईं भावणं इत्यादि। ९. ओघनियुक्ति, पत्र-१३--भाष्यगाथा ३-- पिण्डविसोही समिईभावण, पडिमा य, इंदियनिरोहो। पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु।। १०. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८--चरणं महाव्रतादि, आह च--'वय समण धम्म संजमवेयावच्चं च' इत्यादि। ११. ओघनियुक्ति, पत्र-११. भाष्यगाथा २-- वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव कोहनिग्गहाइ चरणभेयं ।। १२. वही, पत्र-१४ १३. दसवेआलियं, जिनदासचूर्णि पृ. ३७०--चरिया चरित्तमेव मूलुत्तरगुणसमुदायो। १४. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८. निग्रह:--अनाचारप्रवृत्तेर्निषधनं । Jain Education Intenational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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