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सूत्र- ९
१. प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि पुद्गल परिवर्तनशील है। उसके परिवर्तन के दो हेतु हैं--प्रयोग परिणत प्रयोग से परिणत और विवसा परिणत - स्वभाव से परिणत ।
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परिणत का अर्थ है -- एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त
करना ।
सूत्र - १८
२. भ्रान्त (वुप्पाएमाणे)
टीकाकार ने इसका अर्थ किया है-अव्युत्पन्न मति को व्युत्पन्न करना। यहां अव्युत्पन्न को व्युत्पन्न करने का तात्पर्य है--उल्टी सीख देना अर्थात् भ्रान्ति में डालना।
टिप्पण
सूत्र - १९
३. साजी का खार (सज्जखारं)
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सज्ज के संस्कृत रूप सर्ज और सद्य दोनों बनते हैं खार के
१. ज्ञातावृत्ति, पत्र - १८४ पओगवीससापरिणय त्ति प्रयोगेण जीवव्यापारेण, विस्रसया च - स्वभावेन परिणताः - अवस्थान्तरमापन्ना ये ते ।
२. दही व्युत्पादयन् अव्युत्पन्नमतिं व्युत्पन्नां कुर्वन् ।
साथ सज्ज का प्रयोग है अतः यहां सर्ज रूप अधिक उपयुक्त ( सलई का पेड़) से साजी खार बनता है।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ सद्यो भस्म किया है।'
सूत्र २०
४. जल को सुगंधित करने वाले (उदगसंभारणिज्जेहिं) जल को परिवासित या संस्कृत करने वाले द्रव्य । वृत्तिकार के अनुसार वालक (नेत्रवाला) मुस्ता (नागरमोथा) आदि से जल परिवासित होता है।
सूत्र - ३४
५. चातुर्याम धर्म (चाउज्जामं धम्मं )
पार्श्व के समय साधु व गृहस्थ दोनों के लिए चातुर्याम धर्म की व्यवस्था थी इसीलिए श्रावक को चातुर्याम धर्म की देशना दी गई। बारह व्रत की व्यवस्था महावीर की देन है । द्रष्टव्य ५/५९ का टिप्पण ।
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३. वही सज्जखार त्ति सद्यो भस्मः । ४. वही उदकवास वालकमुस्तादिभिः ।
है। सर्ज
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