________________
बारहवां अध्ययन : सूत्र ४७-४९
२६०
नायाधम्मकहाओ ४७. तए णं जियसत्तू रायरिसी एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, ४७. राजार्षि जितशत्रु ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन कर
अहिज्जित्ता, बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन कर मासिक संलेखना की संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता जाव सिद्धे।।
आराधना में स्वयं को समर्पित कर यावत् सिद्ध हुआ।
४८. तए णं सुबुद्धी एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता, बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता जाव सिद्धे।
४८. सुबुद्धि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन कर बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय
का पालन कर मासिक संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर यावत् सिद्ध हुआ।
निक्खेव-पदं ४९. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं बारसमस्स नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते।
--त्ति बेमि।
निक्षेप-पद ४९. जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के बारहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है।
--ऐसा मैं कहता हूँ।
वृत्तिकृता समुद्धृत्ता निगमनगाथा--
मिच्छत्त-मोहियमणा, पावपसत्ता वि पाणिणो विगुणा। फरिहोदगं व गुणिणो, हवंति वरगुरुपसायाओ ।।
वृत्तिकार द्वारा समुद्धत निगमन गाथा
जिनका मन मिथ्यात्व से मूढ और पाप में आसक्त है वे गुणहीन प्राणी भी गुरु के प्रवर प्रसाद से गुणी बन जाते हैं, जैसे वह परिखा का जल।
Jain Education Intemational
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org