________________
नायाधम्मकहाओ
प्रथम अध्ययन : टिप्पण १४१-१४९ तपायोग के साथ-साथ आतापना योग, ध्यान योग और आसन प्रयोग का
सूत्र २०२ व्यवस्थित क्रम चलता है। दिन में आतापना भूमि में उकडू आसन में बैठ, १४४. धमनियों का जाल (धमणिसंतए) सूरज का आतप लिया जाता है और रात्रि के समय अपावृत हो, वीरासन इसका भावार्थ है अत्यन्त कृश । जिसका शरीर केवल धमनियों का में बैठ ध्यान किया जाता है।
जाल मात्र रह गया हो। प्रस्तुत सूत्र में मुख्यत: तीन आसनों की चर्चा है--
विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि २/३, पृ. ५२ का १. ठाणं--कायोत्सर्ग।
टिप्पण। २. उक्कुडुए--उत्कुटुक--उकडू आसन ३. वीरासणे--वीरासन
१४५. राख के ढेर से ढकी हुई आग की भांति तप, तेज और तपस्तेज १. उत्कुटुक आसन--इस आसन में पुत प्रदेश भूमि से स्पष्ट नहीं ।
की श्री से अतीव अतीव उपशोभित (यासणे इव भासरासिपरिच्छन्ने होता।
तवेणं तेएणं...उवसोभेमाणे) २. वीरासन:-धरती पर पांव टिकाकर सिंहासन पर बैठे व्यक्ति
इसका अभिप्राय यह है कि जैसे राख से आवृत अग्नि बाहर से तेज के नीचे से सिंहासन खिसका दिया जाए और वह व्यक्ति उसी अवस्था में रहित प्रतीत होती है फिर भी अन्तर में प्रज्ज्वलित रहती है। वैसे ही मेघ बैठा रहे--इस मुद्रा का नाम वीरासन है।
अनगार मांस आदि के अपचय के कारण बाहर से निस्तेज से हैं पर विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य--उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक
अन्तवृत्ति से शुभध्यान के तप से प्रज्ज्वलित हैं।" अध्ययन, पृष्ठ १४९-१५०
सूत्र २०४
१४६. सुहस्ति (सुहत्थी) सूत्र २००
अन्यत्र तीर्थंकरों के लिए पुरिसवरगंधहत्थी' विशेषण प्रयुक्त हुआ १४२. आतापन लेता हुआ (आयावेमाणे)
है। प्रस्तुत सूत्र में उसी अर्थ में सुहस्ति' शब्द का प्रयोग हुआ है। भगवती आतापना का अर्थ है--सूर्य का आताप लेना।
एवं औपपातिक में भी इसका प्रयोग हुआ है। औपपातिक के वृत्तिकार ने आतापना के आसन भेद से अनेक भेद प्रतिपादित किए हैं।
सूत्र २०६ आतापना के तीन प्रकार हैं--
१४७. पर्यकासन में बैठ (संपलियंकनिसण्णे) १. निपन्न--सोकर ली जाने वाली--उत्कृष्ट
द्रष्टव्य भगवई खण्ड १ पृ. २४२ २. अनिपन्न--बैठकर ली जाने वाली--मध्यम
१४८. (सूत्र २०६) ३. ऊर्ध्वस्थित--खड़े होकर ली जाने वाली--जघन्य
श्रमण भगवान महावीर 'मेघ' को स्वयं प्रव्रजित करते हैं। ठाणं में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या की उपलब्धि के तीन हेतु बताए मेघकमार ने भगवान महावीर के पास दो बार प्रव्रज्या स्वीकार की। वहां गए हैं उनमें पहला हेतु है--आतापन ।'
प्राणातिपात आदि के प्रत्याख्यान का उल्लेख नहीं है। इन अठारह पापों
के प्रत्याख्यान का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र (सूत्र २०६) में ही है। सूत्र २०१ १४३. विचित्र तप:कर्म के द्वारा (विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं)
सूत्र २०८ तप से शक्ति जागरण और चैतन्य केन्द्रों का शोधन होता है। १४९. संलेखना (संलेहणा) अमुक प्रकार के तप से अमुक प्रकार की लब्धियां उत्पन्न होती हैं अथवा संलेखणा का सामान्य अर्थ है अनशन की पूर्व तैयारी। जैन आगम अमुक चैतन्य केन्द्रों का शोधन होता है। इस दृष्टि से तपोयोग की अनेक साहित्य में प्राय: अनशन के पूर्व संलेखना की आराधना का निर्देश है। प्रक्रियाएं हैं। विचित्र तप:कर्म उसी ओर संकेत करता है।
इसका पारिभाषिक अर्थ इस प्रकार है-- १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-७९--गुणानां - निर्जराविशेषाणां रचनाकरणम्, ५. ठाणं ३/३८६
संवत्सरेण-सत्रिभागवर्षेण यस्मिंस्तत्तपो गुणरचनसंवत्सरं गुणा एव वा ६. उत्तराध्ययन, बृहद् वृत्ति पत्र ८४--धमनय:-शिरास्ताभिः सन्ततो-व्याप्तो रत्नानि यंत्र स तथा गुणरत्न: संवत्सरो यत्र तपसि तद् गुणरत्नसंवत्सरमिति,
धमनिसंततः। इह च त्रयोदशमासाः सप्तदशदिनाधिकास्तपःकाल; त्रिसप्ततिश्च दिनानि ७. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८२--हुताशन इव भस्मराशिप्रतिच्छन्नः, तपेणं ति--. पारणककाल इति ।
तपोलक्षणेन तेजसा, अयमभिप्रायो--यथा भस्मच्छन्नोऽग्निबहिर्वृत्त्या २. वही--स्थान-आसनमुत्कुटुक आसनेषु पुत्तालगनरूपं यस्य स तथा। तेजोरहितोऽन्तर्वृत्त्या तु ज्वलति एवं मेघोऽनगारोऽपि बहिर्वृत्त्याऽपचित३. वही--वीरासणेणं ति-सिंहासनोपविष्टस्य भुवि न्यस्तपादस्यापनीतसिंहासनस्येव मांसादित्वान्निस्तेजा अन्तर्वृत्त्या तु शुभध्यानतपसा ज्वलतीति। यदवस्थानं तद् वीरासनम्।
८. (क) अंगसुत्ताणि || भगवई, १५/१ (ख) उवंगसुत्ताणि, ओवाइयं १/७३ ४. औपपातिक सूत्र १९ वृत्तिपत्र ७५, ७६
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org