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प्रथम अध्ययन : टिप्पण १४९-१५३
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शरीर और कषायों का भलीभांति लेखन करना, कृश करना संलेखना है अर्थात शरीर और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को उत्तरोत्तर क्षीण करते हुए काय और कषाय को सम्यक् प्रकार से कृश करने का नाम संलेखना है।
संलेखना दो प्रकार की होती है--आभ्यन्तर और बाह्य कषायों की कृशता आभ्यन्तर संलेखना है। शरीर की कृशता बाह्य संलेखना है। इसे द्रव्य संलेखना भी कहा जाता है। क्रोधादि कषायरहित अनन्त ज्ञानादि गुण रूप परमात्म पदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों को कृश करना भाव संलेखना है। उस भाव संलेखना के लिए कायक्लेश रूप अनुष्ठान करना अर्थात् भोजन आदि का त्याग कर शरीर को कृश करना द्रव्य संलेखना है ।
१५०. अनशन के द्वारा (अणसणाए )
अनशन का शाब्दिक अर्थ है भोजन परिहार । अनशन शब्द का प्रयोग अल्पकालिक और यावज्जीवन दोनों प्रकार के आहार परिहार के लिए होता है। यहां इसका प्रयोग यावज्जीवन भोजन परिहार के अर्थ में
है।
अनशनपूर्वक मृत्यु को जैन परम्परा में उत्तम मरण या पंडितमरण माना गया है।
अनशन के तीन प्रकार हैं-
उपधि
१. भक्त परिज्ञा -- चतुर्विध आहार तथा बाह्य आभ्यन्तर का जो यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान किया जाता है वह 'भक्तपरिज्ञा' कहलाता है।
१. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा - २२५ २. ज्ञातावृत्ति पत्र ८३ परिनिष्यात परिनिर्वाणमुपरतिर्म रणमित्वर्थः, तत्प्रत्ययो निमित्तं यस्य स परिनिर्वाणाप्रत्ययः मृतकपरिष्ठापना कायोत्सर्ग इत्यर्थः तं कायोत्सर्गं कुर्वन्ति ।
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नायाधम्मकहाओ
२. इंगिनी मरण- इस अनशन को करने वाला निश्चित स्थान में ही रहता है उससे बाहर नहीं जाता।
३. प्रायोपगमन इस अनशन को करने वाला कटे हुए वृक्ष की भांति स्थिर रहता है और शरीर की संभाल नहीं करता ।
विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-- आचारांगभाष्यम् पृ. ३८८-४०४
सूत्र २०९
१५१. परिनिर्वाण हेतुक कायोत्सर्ग (परिनेव्वाणवत्तियं काउस्सगं ) वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है--परिनिर्वाण (मृत्यु) के उपरान्त मृतक के शरीर का व्युत्सर्ग तथा उस उपलक्ष्य में किया जाने वाला कायोत्सर्ग
सूत्र २१२
१५२. आयुक्षय, स्थिति क्षय और भवक्षय के (आउक्खएणं ठिइक्खणं भक्क्सएणं)
आयुक्षय आयुष्य कर्म के दलिकों का निर्जरण स्थिति क्षय आयुष्य कर्म की स्थिति का क्षय
भव क्षय देवभव के हेतुभूत कर्म गति आदि का निर्जरण।'
१५३. च्यवन कर (चयं चइत्ता)
'चय' का एक अर्थ शरीर भी है इसलिए उसका अर्थ शरीर को त्यागकर भी हो सकता है। *
३. वही आयुवेग आयुर्वलिकनिर्जरणेन स्थितिक्षण आयुकर्मणः स्थितिवेदनेन भवरोग-देवभवनभूत कर्मणां गत्यादीनां निर्जरमेन ।
४. वही -- चयं शरीरं 'चइत' त्ति त्यक्त्वा अथवा च्यवं च्यवनं कृत्वा ।
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