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________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण १३५-१४१ ८८ नायाधम्मकहाओ था। भगवान यह बता रहे है--जिस समय तुम्हें सम्यक्त्व रत्न का लाभ बार और छेदोपस्थापनीय चारित्र १२० बार आ सकता है, यह संयम का नहीं हुआ है, उस समय में भी प्राणी की अनुकंपा कर पैर नीचे नहीं रखा, परित्याग करने का निश्चय कर लेने की स्थिति में होता है। श्रामण्य का प्रचुर कष्ट सहा। इस समय तू विपुल कुल में उत्पन्न मनुष्य है फिर भी संबंध मूलत: चैतसिक धारा के साथ ही है। उसका अधिरोहण और स्वल्प से कष्ट में विचलित हो गया। अवरोहण की प्रत्यक्ष अनुभूति प्रत्यक्ष ज्ञानी ही कर सकते हैं अथवा व्यक्ति प्राणानुकम्पा का लाभ इससे पूर्ववर्ती सूत्र में बतलाया गया है। स्वयं कर सकता है। मेघ की अतीन्द्रिय क्षमता जाग चुकी थी और अनुत्तर सूत्र १९० ज्ञानी श्रमण महावीर की सन्निधि उसे प्राप्त थी। अत: उसके चैतन्य की १३६. जाति स्मृति (जाईसरणे) भूमिका स्पष्ट थी। यही कारण है स्वयं मेघ ने पुन: दीक्षा प्रदान करने की जाति स्मृति ज्ञान का अर्थ है--अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान। यहां याचना की और भगवान ने उसे दुबारा प्रव्रजित किया। जाति शब्द का अर्थ जन्म है। यह मतिज्ञान का एक प्रकार है। उसकी सूत्र १९५ उत्पत्ति विशेष प्रकार की चैतसिक स्थिति और ऊह-अपोह के द्वारा होती १३८. तथारूप (तहारूवाणं) है। चैतसिक परिस्थिति के निर्माण में १. शुभ परिणाम २. शुभ 'तथारूप' यह स्थविरों का विशेषण है। तथारूप का अर्थ है अध्यवसाय ३. विशुद्ध्यमान लेश्या ४. तदावरणीय कर्म का क्षयोपशम, इन श्रमणचर्या के अनुरूप वेशवाला। चार घटकों का योग आवश्यक है। १३९. सामायिक आदि (सामाइयमाइयाइं) सर्वप्रथम किसी एक दृश्य, घटना, व्यक्ति या वस्तु को देखकर दर्शक ___ ग्यारह अंगों में पहला अंग है आचारांग। किन्तु आगम ग्रन्थों में कहीं के मन में ईहा उत्पन्न होती है। उसका मन आन्दोलित हो उठता है कि यह भी 'आयारमाइयाई एक्कारस अंगाई का उल्लेख न कर 'सामाइयमाइयाई क्या है? क्यों है? कैसे है? मेरा इससे क्या संबंध है? आदि-आदि तर्क उसके एक्कारसअंगाई का उल्लेख किया गया है। इससे अनुमान लगाया जाता है मन में उत्पन्न होते हैं और वह एक-एक कर सबको समाहित करता हुआ कि 'सामायिक' आचारांग का ही कोई दूसरा नाम है। और गहराई में जाता है। अब वह अपोह-निर्णय की स्थिति पर पहुंचता है। आगम अध्येताओं के दो वर्ग रहे हैं--एक ग्यारह अंगों के फिर वह मार्गण और गवेषणा करता है--उसी विषय की अन्तिम गहराई तक धारक और दूसरे द्वादशांगी के धारक। पहुंचने का प्रयत्न करता है। उसके तर्क प्रबल होते जाते हैं और जब वह ग्यारह अंगों के अध्ययन का क्रम संभवत: अल्पबुद्धि या तपस्वियों उस वस्तु में अत्यन्त एकाग्र बन जाता है तब उसे पूर्वजन्म का ज्ञान प्राप्त के लिए रहा होगा। द्वादशांगी का अध्ययन विशिष्ट मेधा सम्पन्न मुनि होता है और उस जन्म की सारी घटना एक-एक कर सामने आने लगती करते थे। है। जैन दर्शन में इसे जाति-स्मृति ज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान के बल से व्यक्ति अपने नौ समनस्क पूर्वजन्मों को जान सूत्र १९७ सकता है। १४०. प्रतिमा (पडिम) मैं कैन हूँ? कहां से आया हूँ? इत्यादि सूत्रों के मनन और निदिध्यासन विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य समवाओ १२/१ का टिप्पण (पृष्ठ ६१) से भी जातिस्मरण की प्राप्ति होती है। ध्यान की गहराई में जब व्यक्ति मनन सूत्र १९९ पूर्वक पीछे लौटता है तो स्वयं के पूर्वजन्म को देख लेता है। १४१. गुणरत्नसम्वत्सर (गुणरयणसंवच्छर) विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य आचारांग भाष्यम् पृ. १९ से २३ ___ यह तप का एक विशिष्ट अनुष्ठान है। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या सूत्र १९१ दो प्रकार से की है। १३७. (सूत्र १९१) १. गुणरत्नसंवत्सर--गुण का अर्थ है निर्जरा विशेष, जिस सम्वत्सर सूत्र १५४ के अनुसार मेघमुनि की मानसिक चेतना में मनित्व के में गुणों की रचना हो, अथवा जिस तप में गुण रूप रत्न उपलब्ध हों और प्रति उदासीनता उभर आई। वे मुनित्व को त्याग, घर जाने के लिए उद्यत आराधना में एक सम्वत्सर का समय लगता है वह गुणरत्नसंवत्सर हो गए। श्रमण भगवान महावीर से प्रतिबोध पाकर पुन: संयम के प्रति कहलाता है। आस्था जागी। गुणरत्नसंवत्सर का तप: काल तेरह मास, सतरह दिन है। पारणक प्रस्तुत सूत्र में वे भगवान से निवेदन करते हैं--भन्ते! मुझे दूसरी काल तिहोत्तर दिन है। सूत्र २०० में गुणरत्नसंवत्सर तप की विस्तार से प्रक्रिया बार प्रव्रजित करें, मुण्डित करें। मेघ मुनि ने भगवान से पुन: दीक्षा की बतायी गई है। इसमें कुल १६ मास का समय लगता है। पहले मास में निरन्तर याचना की। सूत्र १९२ में भगवान उन्हें पुन: प्रव्रजित और मण्डित करते एक दिन उपवास और एक दिन पारणक का क्रम चलता है। हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मानसिक दृष्टि से भी विचलित हो जाने पर दूसरे मास में निरन्तर दो-दो दिन का उपवास, तीसरे मास नई दीक्षा की परम्परा थी। में निरन्तर तीन-तीन दिन का उपवास होता है। इस क्रम में सोलहवें आगमिक दृष्टि से एक जीवन में सामायिक चारित्र उत्कृष्ट ९०० मास में निरन्तर सोलह दिन का उपवास होता है। पूरे साधनाकाल में Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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