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________________ नायाधम्मकहाओ ८७ प्रथम अध्ययन : टिप्पण १३१-१३५ सूत्र १७८ १३१. बिल धर्म से (बिल में रहने वाले कीड़े-मकोड़ों की भांति) (बिलधम्मेणं) जैन आगम और आगमेतर साहित्य में ग्राम-धर्म, नगर-धर्म आदि दस धर्मों का वर्णन है। पर कहीं बिल धर्म का प्रयोग उपलब्ध नहीं होता। प्रस्तुत सूत्र में यह नवीन प्रयोग देखने को मिलता है। धर्म का अर्थ है व्यवस्था। बिल धर्म अर्थात बिल में रहने वाले कीड़े-मकोड़ों की भाति । वन में भयंकर आग लगी। घास पात रहित छोटे से भूभाग में परस्पर विरोधी धर्म वाले जीव-जन्तु किसी दूसरे प्राणी को बाधा पहुंचाये बिना सह-अस्तित्व पूर्वक वहां रहे। छोटे-छोटे जीव जन्तुओं में यह वृत्ति निसर्ग-सिद्ध है। सोवियत संघ के प्रमुख लेखक श्री कुदेरीव ने अपने साहित्य में नये जीवन मूल्य की स्थापना की है, वह है--स्प्रिच्युअल वेल्युज । इसको परिभाषित करते हुए वे बताते हैं--स्प्रिच्युअल वेल्युज का अर्थ है--परस्पर प्रेम, पड़ौसियों से प्रेम, अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए जीने की ललक। यह वृत्ति संकट के समय छोटे से छोटे प्राणी में देखने को मिलती है। सूत्र १८१ १३२. (सूत्र १८१) प्रस्तत सत्र में भगवान मेघ को बता रहे है--तुमने हाथी के भव में खरगोश की अनुकम्पा से प्रेरित होकर अपने पांव को धरती पर नहीं टिकाया, उसे अधर में रखा। इस प्रकरण में आगमकार ने चार पदों का प्रयोग किया है--प्राणानुकम्पा, भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा और सत्त्वानुकम्पा। एक खरगोश के लिए प्राण, भूत, जीव, सत्त्व--इन चार पदों का प्रयोग क्यों? च--इन चार पदा का प्रयोग क्या? इसका समाधान यह है--यह एक समुच्चय पाठ है जो अहिंसा के समग्र-सिद्धान्त की अभिव्यक्ति कर रहा है। इसलिए इस पाठ में सब जीवों का समुच्चय किया गया है। बहुवचन भी इसी अपेक्षा से है। सूत्र १८४ १३३. (सूत्र १८४) प्रस्तुत सत्र में अग्नि प्रशमन में निष्ठित, उपरत, उपशान्त और विध्यात इन चार शब्दों का प्रयोग हुआ है। इस प्रसंग में इनका तात्पर्यार्थ इस प्रकार है निष्ठित--कार्य सम्पन्न होना। उपरत--ईंधन का अभाव। उपशान्त--ज्वालाओं का उपशमन । विध्यात--अंगार, चिनगारी आदि सूक्ष्म अग्निकण का भी अभाव। सूत्र १८९ १३४. उत्थान....... पराक्रम (उट्ठाण-बल............ परक्कम) उत्थान आदि शक्ति के परिचायक शब्द हैं। फिर भी अवस्था कृत अन्तर है. जैसे-- उत्थान--चेष्टा या प्रयत्न बल--शारीरिक शक्ति वीर्य--आत्म शक्ति पुरुषकार--अभिमान गर्भित प्रयत्न पराक्रम--फल सिद्धि के लिए निर्णयपूर्वक किया जाने वाला प्रयत्न।' स्थानांग वृत्ति में पुरुषकार और पराक्रम का अर्थ भिन्न प्रकार से मिलता है। पुरुषकार--अभिमान विशेष, पुरुष का कर्तव्य पराक्रम--अपने विषय की सिद्धि में निष्पन्न पुरुषकार, बल और वीर्य का व्यापार । सूत्र १८९ १३५. (सूत्र १८९) प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर मेघकुमार को मुनि जीवन में स्थिर करने के लिए पर्वजन्म की घटना बतला रहे हैं। भगवान महावीर ने कहा-मेघ! तू आज मनुष्य है, सम्राट श्रेणिक का पुत्र है, वैराग्यपूर्वक मुनि दीक्षा स्वीकार की है, फिर भी थोड़े से कष्ट में तू अधीर हो गया। उस समय को याद कर. जब तू तिर्यंच योनि में था, हाथी था, सम्यक्त्व रत्न का लाभ तुझे प्राप्त नहीं था। उस अवस्था में भी तुमने अनुकम्पा पूर्वक पैर को ऊपर रखा। इस वक्तव्य में 'अपडिलद्धसमत्तरयणलभेणं' यह पाठ है, उस विषय में एक विवाद चल रहा है। उस विवाद का आधार अपडिलद्ध शब्द हैं। अभयदेव ने अपडिलद्ध का अर्थ असंजात किया है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि उस समय हाथी को सम्यक्त्व रत्न का लाभ नहीं हुआ था। दूसरा पक्ष इसका अर्थ करता है--जो पहले प्राप्त नहीं था उस सम्यक्त्व रत्न का लाभ हो गया। ऐसा अर्थ तब किया जा सकता था जब लद्ध अपडिलद्ध सम्यक्त्व रत्न लाभ यह पद होता। मूल पाठ के समस्त पद का विग्रह इस प्रकार है-- सम्यक्त्वमेव रत्नं इति सम्यक्त्व-रत्नं तस्यलाभ: इति सम्यक्त्वरत्नलाभ: न प्रतिलब्ध: सम्यक्त्वरत्नलाभ: तेन । दूसरा विमर्श बिन्दु यह है--भगवान महावीर मेधकुमार को यह नहीं बता रहे है कि उस समय तुम्हें अप्राप्त सम्यक्त्व रत्न का लाभ हुआ १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-७५-७६--बिलधर्मेण-बिलाचारेण यथैकत्र बिले यावन्तो __ मर्कोटकादय: समान्ति तावन्तस्तिष्ठन्ति एवं तेऽपीति । २. कादम्बिनी, जून १९८३ ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र -७६--निट्ठिए त्ति-निष्ठां गतः, कृतस्वकार्यो जात इत्यर्थः, उपरतोऽना-लिगितेन्धनाद् व्यावृत्त:, उपशान्तो-ज्वालोपशमात् । विध्यातोऽगार- मुर्मुराद्यभावात्। ४. वही, पत्र--उत्थानं-चेष्टाविशेषः, बलं-शारीरं, वीर्य-जीवप्रभवं, पुरुषकार:-अभिमान-विशेषः, पराक्रम--स एव साधितफल इति । ५. स्थानांग वृत्ति, पत्र-२८९--पुरुषकार: अभिमान विशेषः पराक्रमः स एवं निष्पादित-स्वविषयोऽथदा, पुरुषकारः पुरुषकर्त्तव्यं, पराक्रमो बलवीर्ययोापरणम्। ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-७७--अप्रतिलब्ध-असंजात: Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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