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________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण १२७-१३० ३. कुपित--क्रोध का बढ़ना। ४. चंडिक्किए--रौद्र रूप धारण करने वाला। ५. मिसिमिसेमाणे--क्रोध से जलता हुआ। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैसे-जैसे क्रोध की वृत्ति उग्र रूप धारण करती है वैसे-वैसे मुद्रा भी प्रखर हो जाती है इनको एकार्थक भी माना गया है। कोप का प्रकर्ष दिखाने के लिए अथवा नानादेशीय शिष्यों के अनुग्रह के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है।' सूत्र १६२ १२८. उज्ज्वल (उज्जला) यहां वेदना की प्रखरता बताने के लिये उज्ज्वल शब्द का प्रयोग हुआ है। इस विषय में वृत्तिकार ने लिखा है-यह वेदना उज्ज्वल है अर्थात् दुःख स्वरूप ही है। उसमें सुख का स्पर्श भी नहीं है। इसका भावार्थ है--एकान्त वेदना। इसका व्यौत्पत्तिक अर्थ हो सकता है--प्रबलता से शरीर और मन को जलाने वाली वेदना। सूत्र १७० १२९. लेश्या.....परिणाम शुभ था। (लेस्साहि.....परिणामेणं) लेस्सा--तेजस् शरीर के साथ काम करने वाली चेतना। अज्झवसाणेणं--कर्म शरीर के साथ काम करने वाली चेतना। वृत्तिकार के अनुसार अध्यवसान का अर्थ है मानसिक परिणति ।' लेकिन यह विमर्शनीय है क्योंकि अध्यवसाय उन प्राणियों के भी होता है, जिनके मन नहीं होता। परिणाम का अर्थ है--जीव परिणति ।' लेश्या, अध्यवसाय और परिणाम--ये तीनों शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं। इनकी अशुभ परिणति आश्रव की और शुभ परिणति निर्जरा की निमित्त है। अतीन्द्रिय चेतना के जागरण के लिए इन तीनों की प्रशस्तता अनिवार्य है। नायाधम्मकहाओ का उल्लेख है। तथा सूत्र १७७ में मज्झिमए वरिसारत्तसि और सूत्र १७८ में चरिमे परिसारत्तंसि प्रयोग हुआ है। वृत्ति के अनुसार प्रावृट् और वर्षारात्र इनको स्वतन्त्र दो ऋतुओं के रूप में स्वीकार किया गया है। जैसे-- १. प्रावृट्--आषाढ़, श्रावण मास २. वर्षारात्र--भाद्रपद, आश्विन मास ३. शरद--कार्तिक, मृगसर मास ४. हेमन्त--पौष, माघ मास ५. बसन्त--फाल्गुन, चैत्रमास ६. ग्रीष्म--वैशाख, ज्येष्ठ मास । अमर कोष में ऋतुएं छ: मानी गई है। पर वहां प्रावृट् का पृथक् उल्लेख नहीं है। शिशिर ऋतु अलग मानी गई है। उनका क्रम इस प्रकार है-- १. मार्गशीर्षपोषौ हिमः २. माघफाल्गुनौ शिशिरः ३. चैत्रवैशाखौ वसन्तः ४. ज्येष्ठाषाढ़ौ ग्रीष्मः ५. श्रावण भाद्रपदौ वर्षा ६. आश्विनकार्तिको शरत्। स्मृति साहित्य में तीन ऋतुओं का वर्णन है-- १. कार्तिक, मृगसर, पौष और माघ--शीत २. फाल्गुन चैत्र वैशाख और ज्येष्ठ--ग्रीष्म ३. आषाढ़ श्रावण भाद्रपद और आश्विन--वर्षा ऋतु। दो ऋतुओं की मान्यता भी रही है। कार्तिक से लेकर छ: महीने तक शीत और वैशाख से लेकर छ: महीने तक ग्रीष्म । संस्कृत साहित्य में जहां ऋतुओं का वर्णन है, वहां प्रावृट् को पृथक ऋतु नहीं माना गया है। उसके अभिमत से प्रावृट् का अर्थ है पहली बरसात का समय, उसका अनुबन्ध वर्षा ऋतु से ही है। अत: वह स्वतन्त्र ऋतु नहीं है। मात्र सुश्रुत (अध्याय ६) में इन छहों ऋतुओं का उल्लेख है। जैसे-- भाद्रपद-आश्विन - वर्षा कार्तिक-मृगसर - शरद पौष-माघ ___ - हेमन्त फाल्गुन-चैत्र - वसन्त वैशाख-ज्येष्ठ - ग्रीष्म आषाढ़-श्रावण - प्रावृट् । सूत्र १७५ १३०. प्रथम पावस में महावृष्टि होने पर (पढम पाउसंसि महावुट्ठिकायंसि) पावस का अर्थ है आषाढ़ और श्रावण मास, अत: प्रथम पावस का अर्थ है-आषाढ़ मास । विमर्श-प्रस्तुत प्रसंग में सूत्र १७५ में पढमपाउससि महावुट्ठिकार्यसि १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-७३--आसुरतैत्ति-स्फुरितकोपलिंग:, रुष्ट:-उदितक्रोधः, कुपित:-प्रवृद्धकोपोदय:, चाण्डिक्यित:-संजात चाण्डिक्यः, प्रकटितरौदरूप इत्यर्थः, 'मिसिमिसीमाणे':त्ति-क्रोधाग्निना देदीप्यमान इव, एकार्थिका वैते शब्दा: कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थं नाना-देशजविनेयानुग्रहार्थं वा। २. वही, पत्र-७४--उज्ज्वला विपक्ष-लेशेनापि अकलंकिता। ३. वही--अध्यवसानं मानसी परिणतिः । ४. वही--परिणामो--जीवपरिणतिः। ५. निशीथ चूर्णि, भाग २, पृ. १२१-पढमपाउसो-पाउसो आसाढ़ो सावणो य। आसाढ़ो पढमपाउसो। ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-७२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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