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________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ३२४-३२७ ३५८ तओ पच्छा सिद्धा बुद्धा मुत्ता अंतगडा परिनिव्वुडा सव्वदुक्खप्पहीणा। नायाधम्मकहाओ आराधना की, आराधना कर अनन्त, प्रवर केवलज्ञान और केवलदर्शन को उत्पन्न कर उसके पश्चात् सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत और सब दुखों का अन्त करने वाले हुए। दोवईए देवत्त-पदं ३२५. तए णं सा दोवई अज्जा सुव्वयाणं अज्जियाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए (अत्ताणं झोसेत्ता?) आलोइय-पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववण्णा । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं दुवयस्स वि देवस्स दससागरोवमाइं ठिई।। द्रौपदी का देवत्व-पद ३२५. वह द्रौपदी आर्या सुव्रता आर्या के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन कर, बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना की आराधना में (स्वयं को समर्पित कर?) आलोचना-प्रतिक्रमण पूर्वक, मृत्यु के समय, मृत्यु का वरण कर, ब्रह्मलोक कल्प में उत्पन्न हुई। वहां कुछ देवों की स्थिति दस सागरोपम बतलाई गई है। वहां द्रुपद देव की स्थिति भी दस सागरोपम ३२६. से णं भत्ते! दुवए देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुझिहिइ मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ।। ३२६. भन्ते! वह द्रुपद देव आयुक्षय, स्थितिक्षय और भवक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्युत होकर कहां जायेगा? यावत् महाविदेह वर्ष में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुखों का अन्त करने वाला होगा। निक्खेव-पदं ३२७. एवं खलुजंबू समणेणं भगवया महावीरेणं माइगरेणं तित्थगरेणं जाव सिद्धिगइणामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं सोलसमस्स नायज्झणस्स अयमढे पण्णत्ते। -त्ति बेमि। निक्षेप-पद ३२७. जम्बु! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता, तीर्थंकर यावत् सिद्ध-गति नामक स्थान को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के सोलहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञाप्त किया है। -ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा सुबहू वि तव-किलेसो, नियाण-दोसेण सिओ संतो। न सिवाय दोवईए, जह किल सूमालिया-जम्मे।|| अथवा अमणुण्णमभत्तीए, पत्ते दाणं भवे अणत्थाय । जह कडुय-तुंब-दाणं, नागसिरि-भवम्मि दोवईए।R || वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन गाथा-- १. अत्यधिक तप:क्लेश भी निदान-दोष से दूषित होकर शिव-साधक नहीं होता, जैसे--सुकुमालिका के जन्म में किया हुआ द्रौपदी का कष्टपूर्ण तप। अथवा २. अमनोज्ञ और भक्ति-भावना से रहित पात्र-दान भी अनर्थ का हेतु बन जाता है, जैसे द्रौपदी द्वारा नागश्री के भव में दिया गया कटुक तुम्बे का दान। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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