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________________ नायाधम्मकहाओ ३५७ ३२१. तए णंते जुहिट्ठिलपामोक्खा पंच अणगारा थेरेहिं अब्भणुण्णाया समाणा थेरे भगवते वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव हत्थकप्पेनयरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता हत्थकप्पस्स बहिया सहस्संबवणे उज्जाणे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति ।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र ३२१-३२४ ३२१. स्थविरों से अनुज्ञा प्राप्त कर युधिष्ठिर प्रमुख उन पांचों अनगारों ने स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर वे स्थविर भगवान के पास से निकले। निकलकर निरन्तर मास-मास के तप:कर्म पूर्वक एक गांव से दूसरे गांव घूमते हुए और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां हस्तकल्प' नगर था वहां आये। वहां आकर हस्तकल्प नगर के बाहर सहस्राम्रवन उद्यान में संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। ३२२. तए णं ते जुहिट्ठिलवज्जा चत्तारि अणगारा मासक्खमण- पारणए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेंति, बीयाए झाणं झायंति एवं जहा गोयमसामी, नवरं--जुहिट्ठिलं आपुच्छति जाव अडमाणा बहुजणसई निसामेंति एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिहनेमी उज्जंतसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तीसेहि अणगारसएहिं सद्धिं कालगए सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिबुडे सव्वदुक्खप्पहीणे॥ ३२२. युधिष्ठिर के अतिरिक्त वे चारों अनगार मासखमण के पारणक के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते, द्वितीय प्रहर में ध्यान करते। इसी प्रकार गौतम स्वामी की भांति, विशेष--युधिष्ठिर को पूछते यावत् अटन करते हुए उन्होंने जन-समूह का शब्द सुना। देवानुप्रियो! अर्हत् अरिष्टनेमि उज्जयन्त पर्वत के शिखर पर निर्जल मासिक अनशन-पूर्वक पांच सौ छत्तीस अनगारों के साथ काल-धर्म को प्राप्त हो, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वत हो समस्त दु:खों का अन्त करने वाले हुए हैं। पंडवाणं निव्वाण-पदं ३२३. तए णं ते जुहिट्ठिलवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोच्चा निसम्म हत्थकप्पाओ नयराओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे जेणेव जहिट्ठिले अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चुवेक्खंति पच्चुवेक्खित्ता गमणागमणस्स पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोएति, आलोएत्ता भत्तपाणं पडिसेंति, पडिदसेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिहनेमी उज्जंतसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं कालगए। तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! इम पुष्वगहियं भत्तपाणंपरिटुक्ता सेत्तुज्जंपव्वयंसणियं-सणियं दुहित्तए, संलेहणा-झूसणा-झोसियाणं कालं अणवेक्खमाणाणं विहरित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमद्वं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता तं पुव्वगहियं भत्तपाणं एगते परिवेति, परिद्धवेत्ता जेणेव सेत्तुज्जे पव्वए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सेत्तुज्ज पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहंति, दुरुहित्ता संलेहणा-झूसणा-झोसिया कालं अणवकंखमाणा विहरति ।। पाण्डवों का निर्वाण-पद ३२३. युधिष्ठिर के अतिरिक्त उन चारों अनगारों ने जन-समूह का शब्द सुनकर, अवधारण कर, हस्तकल्प नगर से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर जहां सहस्राम्रवन उद्यान था, जहां अनगार युधिष्ठिर थे वहां आये। वहां आकर भक्त-पान का निरीक्षण करवाया। निरीक्षण करवाकर गमनागमन का प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण कर एषणा-अनेषणा सम्बन्धी आलोचना की। आलोचना कर भक्तपान को मुनि युधिष्ठिर के समक्ष प्रस्तुत किया। प्रस्तुत कर निवेदन किया--देवानुप्रिय! अर्हत् अरिष्टनेमि उज्जयन्त पर्वत के शिखर पर निर्जल, मासिक अनशन पूर्वक पांच सौ छत्तीस अनगारों के साथ काल धर्म को प्राप्त हो गये हैं। अत: देवानुप्रियो! हमारे लिए उचित है हम इस पूर्वगृहीत भक्त-पान का परिष्ठापन कर शत्रुजय-पर्वत पर आरोहण करें और संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विहार करें। उन्होने परस्पर इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार कर उस पूर्वगृहीत भक्त-पान का एकान्त में परिष्ठापन किया। परिष्ठापन कर जहां श@जय पर्वत था वहां आए। वहां आकर धीरे-धीरे शत्रुजय पर्वत पर आरोहण किया। आरोहण कर संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विहार करने लगे। ३२४. तए णं ते जुहिट्ठिलपामोक्खा पंच अणगारा सामाइयमाइयाई चोद्दसफुव्वाइंअहिज्जित्ता, बहूणि बासाणि सामण्णपरियागंपाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेत्ता जस्सट्ठाए कीरए नग्गभावे जाव तमट्ठमाराहेंति, आराहेत्ता अणंतं केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेता ३२४. उन युधिष्ठिर प्रमुख पांचों अनगारों ने सामायिक आदि चौदह पूर्वी का अध्ययन कर, बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, द्वैमासिक संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर, जिस प्रयोजन से नग्नभाव स्वीकार किया जाता है यावत् उस प्रयोजन की Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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