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________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २८-३१ ३०८ नायाधम्मकहाओ नागसिरीए गिहनिव्वासण-पदं नागश्री का गृह-निर्वासन-पद २८. तए णं ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमढे २८. चम्पानगरी के जनसमूह से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर वे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणा ब्राह्मण क्रोध से तमतमा उठे। वे रुष्ट, कुपित, रौद्र और क्रोध से जलते जेणेव नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हुए जहां नागश्री ब्राह्मणी थी, वहां आए। आकर नागश्री ब्राह्मणी से नागसिरिं माहणिं एवं वयासी--"हंभो नागसिरी! अपत्थियपत्थिए! इस प्रकार कहा--हभो! नागश्री! अप्रार्थित की प्रार्थिनी! दुरन्त-प्रान्त-लक्षणे दुरंतपंतलक्खणे! हीणपुण्णचाउद्दसे! (सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति- हीन-पुण्य-चतुर्दशिके! (श्री-ही-धृति और कीर्ति से शून्य?) धिक्कार परिवज्जिए?) धिरत्थु णं तव अधन्नाए अपुण्णाए दूभगाए है तुझ अधन्या, अपुण्या, दुर्भगा, दुर्भगसत्त्वा, दुर्भगनिम्बोलिका को जो दूभगसत्ताए दूभगनिंबोलियाए, जाए णं तुमे तहारूवे साहू साहुरूवे तूने तथारूप, साधुरूप साधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइएणं तित्तालाउएणं पारणक में वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न यावत् उस शाक के कारण जाव जीवियाओ ववरोविए।" उच्चावयाहिं उक्कोसणाहिं अक्कोसंति, जीवन-रहित कर दिया। उन्होंने उसे उच्चावच आक्रोशपूर्ण शब्दों से उच्चावयाहिं उद्धसणाहिं उद्धंसेंति, उच्चावयाहिं निभंच्छणाहिं कोसा, उच्चावच तुच्छतासूचक शब्दों से तिरस्कृत किया, उच्चावच निन्भच्छेति, उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेंति, तज्जेति परुषतासूचक शब्दों से निर्भर्त्सना की। उच्चावच धमकी भरे शब्दों ताति, तज्जित्ता तालित्ता सयाओ गिहाओ निच्छुभंति ।। से धमकाया तथा उसकी तर्जना और ताड़ना की। तर्जना और ताड़ना कर उसे अपने घर से बाहर निकाल दिया। २९. तए णं सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूढा समाणी चंपाए नयरीए सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु बहुजणेणं हीलिज्जमाणी खिसिज्जमाणी निदिज्जमाणी गरहिज्जमाणी तज्जिज्जमाणी पब्वहिज्जमाणी धिक्कारिज्जमाणी थुक्कारिज्जमाणी कत्थइ ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी दंडीखंड-निवसणा खंडमल्लय-खंडघडग-हत्थगया फुट्ट-हडाहडसीसा मच्छियाचडगरेणं अन्निज्जमाणमग्गा गेहंगेहणं देहंबलियाए वित्तिं कप्पेमाणी विहरइ।। २९. उस नागश्री ब्राह्मणी ने अपने घर से निकाल दिए जाने पर चम्पानगरी के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों राजमार्गों और मार्गों में जन-समूह के द्वारा हीलित, कुत्सित, निन्दित, गर्हित, तर्जित, प्रव्यथित, धिक्कारित और थूत्कारित होती हुई न कहीं स्थान पाया और न निलय । वह सांधा हुआ जीर्ण वस्त्र-खण्ड पहने, हाथ में फूटा हुआ भिक्षापात्र और फूटा हुआ घड़ा लिए घर-घर भिक्षावृत्ति से जीवन निर्वाह करती हुई विहार करने लगी। उसके सिर के बाल अत्यन्त बिखरे हुए थे और मक्खियों का दल सदा उसका पीछा करता रहता था। नागसिरीए भवभमण-पदं ३०. तए णं तीसे नागसिरीए माहणीए तब्भवंसि चेव सोलस रोगायंका पाउब्भूया। (तं जहा-- सासे कासे जरे दाहे, जोणिसूले भगंदरे। अरिसा अजीरए दिट्ठी-मुद्धसूले अकारए। अच्छिवेयणा कण्णवेयणा कंडू दउदरे कोढे ।1) नागश्री का भव-भ्रमण-पद ३०. उस नागश्री के शरीर में इस जीवन में ही सोलह रोगातंक प्रादुर्भूत हुए-(जैसे--श्वास, कास, ज्वर, दाह, योनिशूल, भगन्दर, अर्श, अजीर्ण, दृष्टिशूल, शिरःशूल, अन्न की अरुचि, अक्षि-वेदना, कर्ण-वेदना कण्डू, जलोदर और कुष्ठ)। ३१. तए णं सा नागसिरी माहणी सोलसेहिं रोगायंकेहिं अभिभूया समाणी अट्ट-दुहट्ट-वसट्टा कालमासे कालं किच्चा छट्ठाए पुढवीए उक्कोसं बावीससागरोवमट्ठिईएसुनेरइएस नेरइयत्ताए उववण्णा। सा णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता मच्छेसु उववण्णा । तत्थ णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोसं तेत्तीस-सागरोवमट्टिईएसुनेरइएसु नेरइयत्ताए उववण्णा । साणं तओणंतरं उज्वट्टित्ता दोच्चपि मच्छेसु उववज्जइ। तत्थ वि य णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोच्चंपि अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोसं तेत्तीससागरोवमट्ठिइएस ३१. वह नागश्री ब्राह्मणी सोलह रोगातंकों से अभिभूत हो आर्त, दु:खात और वासना से आर्त हो मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्तकर छठी पृथ्वी में, उत्कृष्ट बाईस सागरोपम स्थिति वाले नरकावासों में से किसी एक नरकावास में नैरयिक रूप में उपपन्न हुई। वह वहां से निकलकर मत्स्य रूप में उपपन्न हुई। वहां शस्त्र वध से उत्पन्न दाह की अवस्था से मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर वह अध: स्थित सातवीं पृथ्वी में, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम स्थिति वाले नरकावासों में से किसी एक नरकावास में नैरयिक के रूप में उपपन्न वहां से निकलकर दूसरी बार भी मत्स्य रूप में उपपन्न हुई। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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