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________________ नायाधम्मकहाओ ३०७ धम्मरुइस्स सइसभा-पदं २४. तए णं ते धम्मघोसा थेरा पुव्वगए उवओगं गच्छंति, समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु अज्जो! मम अतेवासी धम्मरुई नामं अणगारे पगइभद्दए पगइउवसते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दव-संपण्णे अल्लीणे भद्दए विणीए मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे जाव नागसिरीए माहणीए गिहं अणुपविटे । तए णं सा नागसिरी माहणी जाव तं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहंसि सव्वमेव निसिरइ। तएणं से धम्मरुई अणगारे अहापज्जत्तमिति कटु नागसिरीए माहणीए गिहाओ पडिनिक्खमइ जाव समाहिपत्ते कालगए। से णं धम्मरुई अणगारे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता आलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ढं जाव सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे। तत्थ णं अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । तत्थ णं धम्मरुइस्स वि देवस्स, तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। से णं धम्मरुई देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र २४-२७ धर्मरुचि की स्मृति-सभा-पद २४. धर्मघोष स्थविर ने पूर्वगत में उपयोग लगाया। श्रमण-निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिकाओं को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--आर्यो ! मेरा अन्तेवासी धर्मरुचि नाम का अनगार प्रकृति से भद्र, प्रकृति से उपशान्त, प्रकृति से प्रतनु क्रोध, मान, माया और लोभ वाला, मृदु-मार्दव-सम्पन्न, आत्मलीन, भद्र और विनीत था। वह निरन्तर मास-मास के तप: कर्म से स्वयं को भावित करता हुआ यावत् नागश्री ब्राह्मणी के घर में प्रविष्ट हुआ। नागश्री ब्राह्मणी ने वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए उस समूचे शाक को धर्मरुचि अनगार के पात्र में डाल दिया। धर्मरुचि अनगार ने यह भोजन यथापर्याप्त है--यह सोचकर नागश्री ब्राह्मणी के घर से निष्क्रमण किया यावत् वह समाधि को प्राप्त हो, कालगत हो गया। वह धर्मरुचि अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य का पालन कर आलोचना-प्रतिक्रमण कर, समाधि को प्राप्त हो, मृत्यु के समय मृत्यु का वरणकर ऊपर यावत् सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप में उपपन्न हुआ है। वहां की अजधन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति बतलायी गयी है। वहां धर्मरुचि देव की स्थिति भी तेतीस सागरोपम है। वह धर्मरुचि देव आयु क्षय, स्थितिक्षय और भवक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्युत हो, महाविदेह वर्ष में सिद्ध होगा। नागसिरीए गरिहा-पदं २५. तं घिरत्यु णं अज्जो! नागसिरीए माहणीए अधन्नाए अपुण्णाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगनिंबोलियाए, जाए णं तहारूवे साहू साहुरूवे धम्मरुई अणगारे मासक्खमणपारणगंसि सालइएणं तित्तालाउएणं बहुसंभारसंभिएणं नेहावगाढणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए। नागश्री का गर्हा-पद २५. अत: आर्यो! धिक्कार है उस अधन्या, अपुण्या, दुर्भगा, दुर्भगसत्त्वा, दुर्भग-निम्बोलिका नागश्री ब्राह्मणी को जिसने तथारूप साधुरूप साधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणे में वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तुम्बे के उस प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए शाक के कारण अकाल में ही जीवन-रहित कर दिया। २६. तए णं ते समणा निग्गंथा धम्मघोसणं थेराणं अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म चंपाए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- महापहपहेसु बहुजणस्स एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति--धिरत्थु णं देवाणुप्पिया! नागसिरीए जाव, दूभगनिंबोलियाए, जाए णंतहारूवे साहू साहुरूवे धम्मरुई अणगारे सालइएणं तित्तालाउएणं बहुसंभारसंभिएणं नेहावगाढेणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए। २६. धर्मघोष स्थविर के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर उन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने चम्पानगरी के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में जन-समूह के सामने इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और प्ररूपणा की--देवानुप्रियो! धिक्कार है उस अधन्या यावत् दुर्भगनिम्बोलिका नागश्री ब्राह्मणी को जिसने तथारूप साधुरूप साधु धर्मरुचि अनगार को वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए उस शाक के कारण अकाल में ही जीवन-रहित कर दिया। २७. तए णं तेसिं समणाणं अंतिए एयमहूँ सोच्चा निसम्म बहजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-- धिरत्यु णं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविए।। २७. उन श्रमण-निर्ग्रन्थों के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर जनसमूह ने परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और प्ररूपणा की--धिक्कार है उस नागश्री ब्राह्मणी को यावत् जिसने श्रमण-निर्ग्रन्थ को जीवन-रहित कर दिया। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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