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________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण १०-१६ ६६ प्रयोग होता है ।' 'उच्छूढ़शरीरे' यह उक्त दोनों शब्दों के अर्थ का प्रतिनिधित्व करता है । विवरण हेतु द्रष्टव्य-- भगवई खण्ड १ पृ. १७ ११. ऊर्ध्व जानु अध: सिर ( उकडू आसन की मुद्रा में ) ( उड्ढं जाणू अहो सिरे) मुनि के लिए शुद्ध पृथ्वी (आसन बिछाए बिना सीधे मिट्टी) पर बैठना निषिद्ध है तथा वे औपग्रहिक (वर्षाकाल आदि में रखे जाने वाले) आसन रखते नहीं थे । इसलिए उकडू आसन में बैठते थे । 'उड्ढं जाणू' से उकडू आसन अर्थ लभ्य होता है। शिवनृत्य में शिव को नृत्य करते समय ऊर्ध्व जानुपाद कहा गया है। यहां ऊर्ध्व जानु यह शब्द साम्य है। अनुश्रुति के अनुसार शिवजी जब नृत्य करते थे, एक पांव को सिर पर रख लेते थे। उनकी इस अवस्था का वर्णन करते हुए 'उन्हें 'उत्थित वामपाद' भी कहा गया है। कहते हैं तेरापंथ धर्मसंघ के मुनि आनन्दरामजी कन्धों पर दोनों पांव रखकर घंटों तक ध्यान कर सकते थे। हो सकता है उड्ढे जाणू शब्द किसी विशिष्ट ध्यानमुद्रा का सूचक रहा हो। विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य--भगवई खण्ड १ पृ. १८, १९ १२. ध्यान कोष्ठक में प्रविष्ट होकर (झाणकोडोवगए) यहां ध्यान को एक कोष्ठक माना गया है। जो ध्यान कोष्ठक में चला जाता है उसे ध्यान कोष्ठोपगत कहा गया है। जैसे कोठे में डाला गया धान बिखरता नहीं, वैसे ही ध्यान कोष्ठक में प्रविष्ट साधक की इन्द्रिय चेतना और मानस चेतना बिखरती नहीं। वह संवृतात्मा बन जाता है। आगमों में मुनि के लिए अनेकश: झाणकोट्ठोवगए विशेषण का प्रयोग हुआ है। द्रष्टव्य-- भगवई खण्ड १ पृ० १९ १३. संयम और तप से (संजमेण तपसा ) -- यहां वृत्तिकार ने संयम का अर्थ संवर और तप का अर्थ किया है। महाव्रत, समिति, गुप्ति, इन्द्रिय निग्रह और मनोनिग्रह-न सबका समाहार संयम शब्द में होता है। ध्यान- द्वादशांग तप में अन्तरंग १. वही वोसो पहिमादिसु विनिवृत्तयो हामदणातिविभूषाविरहितो चत्तो। २. ज्ञातावृत्ति, पत्र - १० - शुद्धपृथिव्यासनवर्जनात् औपग्रहिक निषद्याभावाच्च, उत्कुटुकासनः सन्नपदिश्यते ऊर्ध्वं जानुनी यस्य स ऊर्ध्वजानुः । ३. वही - ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतः यथा हि कोष्ठके धान्य प्रक्षिप्तमविप्रकीर्ण भवत्येव स भगवान् धर्मध्यानकोष्ठकमनुप्रविश्येन्द्रियमनांस्यधिकृत्य संवृतात्मा भवतीति भावः । ४. वही - - संयमेन संवरेण तपसा ध्यानेन । ५. वही, पत्र - ११ - - वक्ष्यमाणानां पदार्थानां तत्त्वत्परिज्ञाने स तथा । ६. वही जातं कुतूहलं यस्य स तथा जातीत्सुक्य इत्यर्थः। विश्वस्यापि Jain Education International तप का ही एक प्रकार है 1 नायाधम्मकहाओ विवरण हेतु द्रष्टव्य--भगवई खण्ड १ पृ. १९ सूत्र ७ १४. एक श्रद्धा, एक संशय और एक कुतूहल जन्मा (जायसड्डे, जायसंसए, जायकोउहल्ले) श्रद्धा -- तत्त्वपरिज्ञान की इच्छा।" संशय--यहां संशय जिज्ञासा के अर्थ में प्रयुक्त है। संशय वास्तव में सत्य के निकट पहुंचने का द्वार है | 'न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति' संशय पर आरूढ़ हुए बिना व्यक्ति कल्याण को नहीं देख सकता। आर्य जम्बू के लिए प्रयुक्त जायसंसए जायको उहल्ले विशेषण इसी ओर संकेत करते हैं। कुतूहल -- पदार्थ या सत्य की नवीन पर्याय को उद्घाटित करने, जानने की उत्सुकता जैसे भगवतीसूत्र में समस्त विश्व व्यतिकर प्रतिपावित हो चुका है तो फिर छठे अंग में कौनसा दूसरा अर्थ अभिहित होगा?" 1 ज्ञात, संज्ञात, उत्पन्न और समुत्पन्न - ये चारों शब्द ज्ञान के क्रमिक विकास के सूचक हैं। किसी भी वस्तु का एक क्षण में परिपूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता, क्रमश: उसके नए-नए पर्याय उद्घाटित होते हैं । उक्त चारों शब्द उन नूतन ज्ञान पर्यायों के वाचक हैं। इस दृष्टि से उनमें क्रमश: अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का अर्थ अन्तर्भित है।" विवरण हेतु द्रष्टव्य-- भगवई खण्ड १ पृ. २० १५. दांयी ओर से प्रारम्भ कर प्रदक्षिणा (आयाहिणं पयाहिणं) द्रष्टव्य-- भगवई खण्ड १ पृ. २० १६. धर्म के प्रवर चतुर्दिगुजयी चक्रवर्ती (धम्मवरचाउरतचक्कवडी) में छह खण्ड वाले भारतवर्ष के अधिपति को चक्रवर्ती कहते हैं।" जिसके राज्य के एक दिगन्त में हिमवान् पर्वत और तीन दिगन्तों । समुद्र हो, वह चातुरन्त कहलाता है। इसका दूसरा अर्थ है- हाथी, अश्व, रथ और मनुष्य -- इन चारों के द्वारा शत्रु का नाश - अन्त करने वाला ।' जो चक्र के द्वारा प्रजा का पालन करता है वह चक्रवर्ती होता है। अर्हत धर्म के प्रवर चातुरन्त चक्रवर्ती होते हैं। विश्वव्यतिकरस्य पञ्चमांगे प्रतिपादितत्वात् षष्ठाङ्गस्य कोऽन्योऽय भगवताऽभिहितो भविष्यतीति । ७. वही तावदवग्रहः एवं संजातोत्पन्नसमुत्पन्न श्रद्धादईहापापधारणाभेदेन वाच्या इति । ८. उत्तराध्ययनबृहद् वृति पत्र- ३५० चक्रवर्ती पट्ण्डभरताधिपः । ९. वही मतसृष्वपि दिवन्तः - पर्यन्त एकत्र हिमवानन्यत्र च दित्रये समुद्र स्वसम्बन्धितयाऽस्येति चतुरन्तः, चतुर्भिर्वा हय- गज-रथ-नरात्मकैरन्तः - शत्रुविनाशात्मको यस्य स तथा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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