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________________ नायाधम्मकहाओ ६५ ८. वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त ( वइररिसहणारायसंघयणे ) संकलन का अर्थ है शरीर की अस्थि संरचना देव और नरक गति के जीव वैक्रिय शरीर वाले होते हैं। उस शरीर में रस, रक्त, मांस आदि सातों ही धातुएं नहीं होतीं। इसलिए वहां अस्थि संरचना का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। मनुष्य और तिर्यंच गति में उत्पन्न होने वाले जीवों के औदारिक शरीर होता है। यह शरीर रक्त, मांस, रस आदि धातुओं से निर्मित होता है अतः संहनन इसी शरीर में प्राप्त होते हैं। वज्रऋषभनाराच - पद में तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं-वज्र, ऋषभ और नाराय। अस्थिकील के लिए बज्र, परिवेष्टन अस्थि के लिए ऋषभ और परस्पर गुंथी हुई आकृति के लिए नाराच शब्द का प्रयोग किया गया है। इस संहनन में तीन अस्थियों को भेदकर आर-पार एक अस्थिकील (बोल्ट) कसा हुआ होता है। यह सर्वोत्कृष्ट शक्तिशाली संहनन है शुक्ल ध्यान की साधना और मोक्ष गमन के लिए इस संहनन का होना जरूरी है। शलाका पुरुषों (तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि) के भी इसी प्रकार की अस्थिरचना होती है। उत्कृष्ट साधना की भांति उत्कृष्ट क्रूर कर्म भी इसी अस्थि रचना वाले प्राणी करते हैं। एक ओर मोक्ष तथा दूसरी ओर तमतमा प्रभा (सप्तम) नरक - एक ही माध्यम से ये दो परिणतियां पुरुषार्थ के सम्यक् और असम्यक् प्रयोग पर निर्भर करती है। चिकित्सा शास्त्र में स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अस्थि संरचना पर बहुत ध्यान दिया गया है। स्वस्थ शब्द का एक अर्थ है - जिसकी अस्थियां शोभन हों, मजबूत हों । स्वास्थ्य के संदर्भ में यही अर्थ अधिक उपयुक्त होता है। संहनन की पूरी जानकारी के बाद यह अर्थ निकलता है कि साधना और स्वास्थ्य दोनों दृष्टियों से अस्थि संरचना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। द्रष्टव्य- भगवई खण्ड १. पृ. १५, १६ उत्तरायणाणि २२ / ६ का टिप्पण ९. उग्र तपस्वी........घोर ब्रह्मचर्यवासी (उग्गतवे .......घोर बंभचेरवासी) उक्त नौ विशेषणों से आर्य जम्बू की विशिष्ट आध्यात्मिक संपदा परिलक्षित हो रही है । वृत्ति में इन शब्दों की व्याख्या या अर्थ परम्परा उपलब्ध नहीं है। तत्त्वार्थ वार्तिक में तप के अतिशय की ऋद्धि सात प्रकार की १. तत्वार्थवार्तिक ३३६ २०३ तपोतिशयर्द्धि सप्तविधा आदीप्ततप्त महाघोर तपो पराक्रम-घोर ब्रह्मदत् २. वही - चतुर्थषष्ठाष्टमदशम- द्वादश-पक्ष-मासाद्यनशनयोगेषु अन्यतमयोगमारभ्य आमरणादनिवर्तका उग्रतपसः । ३. वही--महोपवासकरणेऽपि प्रवर्धमानकायवाङ्मानसबलाः विगन्धिरहितवदनाः पद्मोत्पलादि सुरभिनिः प्रवासा अप्रच्युतमहादीप्तिशरीरा दीप्ततपसः । ४. वही सप्तापसकटाहपतितवदारवल्पाहारया मलरुधिरादिभावपरिणामविरहिताभ्यवहाराः तप्ततपसः । ५. वही सिंहनिष्क्रीडितादिमहासानुष्ठानपरायणयतयो महातपस्विनः । प्रथम अध्ययन : टिप्पण ८-१० बतलाई गई है, जैसे-उग्र तप दीप्त तप, राप्त तप, महातप, घोर तप, वीर पराक्रम और घोर ब्रह्मचर्य ।' तत्त्वार्थ वार्तिक में वीर पराक्रम- यह प्रयोग नया है। ज्ञाता में उराल, घोर और घोरगुणये तीन शब्द नए हैं। १. उग्रतपस्वी --जो एक, दो, तीन, चार, पांच अथवा पाक्षिक, मासिक आदि उपवास योग में से किसी एक का प्रारम्भ कर जीवन पर्यन्त उसका निर्वाह करता है, उसे उग्रतपस्वी कहा जाता है। २ २. दीप्त तपस्वी -- कई उपवास कर लेने पर भी जिसका कायिक, वाचिक और मानसिक बल प्रवर्धमान रहता है, मुंह दुर्गन्ध रहित रहता है, निःश्वास से पद्मोत्पल आदि की भांति सुरभि फूटती है और शरीर की दीप्ति विनष्ट नहीं होती, उन्हें दीप्त तपस्वी कहा जाता है। * Jain Education International ३. तप्त तपस्वी--जैसे तपे हुए लोहे के तवे पर गिरा हुआ जलकण शीघ्र ही सूख जाता है, वैसे ही जिनके द्वारा ग्रहण किया हुआ शुष्क एवं स्वल्प आहार शीघ्र ही परिणत हो जाता है, उसकी मल- रुधिर आदि में परिणति नहीं होती, उन्हें तप्त तपस्वी कहा जाता है। * ४. महातपस्वी --सिंहनिष्क्रीडित आदि महान तपोनुष्ठान परायण यतिजनों को महातपस्वी कहा जाता है। " ५. घोरतपस्वी बात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले नाना प्रकार के रोगों के होने पर भी जो अनशन, कायक्लेश आदि में मन्द नहीं होते । भयानक श्मशान, पर्वत की गुफा आदि में रहने के अभ्यास हैं, उन्हें घोरतपस्वी कहा जाता है।' I ६. पोरब्रह्मचर्यवासी चिरकाल से आसेवित होने से जिनका ब्रह्मचर्यवास अस्खलित होता है चारित्र मोह के प्रकृष्ट क्षयोपशम के कारण जिनके दुःस्वप्न भी प्रगष्ट हो जाते हैं, उन्हें घोर ब्रह्मचर्यवासी कहा जाता है। " १०. लघिमा ऋद्धिसम्पन्न (उच्छूढसरीरे) दशवैकालिक में उच्छूदशरीरे के अर्थ में बोसट्टचत्तदेहे शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है जिसने शरीर का व्युत्सर्ग और त्याग किया हो ।' व्युत्सर्ग और त्याग ये दोनों प्रायः समानार्थक हैं फिर भी आगम ग्रन्थों में इनका प्रयोग विशेष अर्थ में हुआ है। अभिग्रह और प्रतिमा स्वीकार कर शारीरिक क्रिया के स्थाग के अर्थ में व्युत्सर्ग का और शारीरिक परिकर्म (साजसज्जा) के परित्याग के अर्थ में त्याग शब्द का ६. वही--वातपित्तश्लेष्मसन्निपातसमुद्भूत ज्वरकासश्वासाक्षिशूतकुष्ठप्रमेहादिविविधरोगसन्तापितदेहा अपि अप्रच्युताऽनशनकायक्लेशादितपसो श्रीम- श्मशानाद्रिमस्तक- गुहादरी-कन्दर शून्य-ग्रामादिषु प्रदुष्टयक्ष-राक्षसपिशाच- प्रनृत्तवेताल-रूप-विकारेषु परुषशिवारुतानुपरतसिंहव्याघ्रादिव्यालमृगभीषण- स्वन घोर चौरादि प्रचरितष्वभिरुचितावासाश्च घोरतपसः । ७. तत्त्वार्थवार्तिक ३/३६ पृ. २०३. - - चिरोषिताऽस्खलितब्रह्मचर्यवासाः प्रकृष्ट-चारित्रमोहनीयक्षयोपशमात् प्रष्ट दुखन्ना: पोरब्रह्मचारिणः । - ८. दशवेकालिक १०/१३-असई वोचत्तदे ९. दशवैकालिक अगस्त्यचूर्णि -वोसट्ठ चत्तो य देहो जेण सो वोसट्टचत्तदेहो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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