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प्रथम अध्ययन : टिप्पण ६-७
नायाधम्मकहाओ २२. ज्ञान, दर्शन, चारित्र
वस्तुओं को जला सकती है। ज्ञान-मतिज्ञान आदि।
अध्यात्म के क्षेत्र में उपलब्ध शक्ति का प्रयोग निषिद्ध है। आर्य दर्शन-सम्यक् दर्शन।
सुधर्मा विपुल तेजोलेश्या को अपने भीतर समेटे हुए थे। इससे यही चारित्र-बाह्य सदनुष्ठान।
ध्वनित होता है कि वे महान शक्तिधर थे। अनुग्रह और निग्रह करने में प्रस्तुत सूत्र में आर्य सुधर्मा के व्यक्तित्व वर्णन में पहले समर्थ थे फिर भी वे सदा आत्मलीन रहते थे। उस शक्ति का प्रयोग नहीं क्रोधजयी.....लोभजयी के रूप में उल्लेख हुआ है और फिर बताया गया करते थे। कि वे आर्जव, मार्दव, लाघव और क्षान्ति सम्पन्न थे। सामान्यत: लगता तेजोलेश्या एक विशेष प्रकार की प्राण शक्ति है। ठाणं और है पुनरुक्ति हुई है, किन्तु वृत्तिकार ने इसका स्वयं समाधान प्रस्तुत कर । भगवती में इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है। तेजोलब्धि से सम्पन्न दिया है।
व्यक्ति अपने स्थान पर खड़ा-खड़ा अंग-बंग जैसे विशाल १६ प्रान्तों को जियकोहे........आदि का अर्थ है उदय प्राप्त क्रोध आदि का कुछ क्षणों में भस्म कर सकता है। यह आणविक आयुधों से भी भयानक विफलीकरण और अज्जवप्पहाणे आदि से अभिप्रेत है क्रोध आदि कषायों शक्ति है। यह शक्ति नष्ट करने की ही नहीं, अपितु सुरक्षा के उपयोग के उदय का निरोध।
की भी है। शीतलतेजोलेश्या भयानक आग को शान्त कर सकती है। जिस वे जितक्रोध आदि हैं इसलिए क्षमादि प्रधान हैं। इस हेतुहेतुमद्भाव व्यक्ति को तेजोलब्धि उपलब्ध हो जाती है उस व्यक्ति का भी इस से भी दोनों प्रयोगों के अर्थ की भिन्नता का बोध होता है। यही दो बार लब्धि से कोई अहित नहीं किया जा सकता। ठाणं सूत्र में बताया गया है प्रयोग करने की सार्थकता है।
कि तेजोलब्धि सम्पन्न श्रमण माहण की आशातना करता हुआ कोई व्यक्ति
उस पर लब्धि का प्रयोग करता है तो वह लब्धि उसके शरीर में प्रवेश २३. घोर
नहीं कर सकती, मार नहीं सकती। उसके शरीर के ऊपर, नीचे, दायें, परिषह, इन्द्रिय और कषाय रूप शत्रुओं के विनाश के लिए
बायें प्रदक्षिणा देती हुई, आकाश मार्ग से लौट कर, जिसने लब्धि का प्रयोग भीम।
किया उसी के शरीर में प्रविष्ट हो जाती है। गोशालक ने भगवान महावीर घोर एक विशेष प्रकार की साधना थी। जो साधक प्रत्येक कष्ट
पर लब्धि का प्रयोग किया। उस लब्धि ने पुन: उसके शरीर में प्रवेश कर को सह लेता, परिस्थिति से पराजित नहीं होता वह घोर कहलाता।
उसको ही प्रतिहत किया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। २४. घोरव्रती, घोरतपस्वी, घोरब्रह्मचर्यवासी
तेजोलब्धि से जैसे उष्ण विस्फोट होता है वैसे ही शीतल विस्फोट इसका तात्पर्य है, उन जैसा व्रत, तप और ब्रह्मचर्य वास अन्य
भी किया जाता है। ठाणं में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या की उपलब्धि के अल्पसत्व साधकों के लिए दुरनचुर है। इससे आर्य सुधर्मा की अद्भुत
का तीन उपाय बताये गए हैं--आतापना, क्षान्ति (क्षमा), निर्जल तप:कर्म। सत्त्वशीलता का परिचय मिलता है।
तेजोलब्धि की दो अवस्थाएं होती हैं--संक्षिप्त और वितत । इन्हें जो अत्यन्त दुर्धर महाव्रतों को धारण किए हुए हो, उसे घोरव्रती सुप्त और जागृत भी कहा जा सकता है। सामान्य अवस्था में यह संक्षिप्त कहा जाता है।
या सुप्त रहती है और प्रयोगकाल में जागृत हो जाती है। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य भगवई खण्ड १ पृष्ठ १६-१७
विस्तार हेतु द्रष्टव्य-भगवई खण्ड १, पृ. १७ २५. विपुल तेजोलेश्या को अपने भीतर समेटे हुए
सत्र६ तेजोलेश्या तपोजनित विशिष्ट लब्धि है। इससे शरीर में ऐसी ७. समचतुष्कोण संस्थान से संस्थित (समचउरंससंठाणसंठिए) प्रखर तेजोज्वाला प्रकट होती है जो अनेक योजन परिमित क्षेत्र में स्थित द्रष्टव्य--उत्तरज्झयणाणि २२/६/३
१. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८--ज्ञानं मत्यादि, दर्शन--चक्षुदर्शनादि सम्यक्त्वं वा, स तथा घोरैस्तपोभिस्तपस्वी च तथा घोरं च तद्ब्रह्मचर्य चाल्पसत्त्वैर्दुःखं चारित्रं बाह्यं सदनुष्ठानं।
यदनुचर्यत तस्मिन् घोरब्रह्मचर्य वस्तुं शीलमस्येति घोरब्रह्मचर्यवासी। २. वही-ननु जितक्रोधत्वादीनां आर्जवादीनां च को विशेष:?
५. उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति, पत्र ३६५-घोरवतो धृतात्यन्तदुर्द्धरमहाव्रतः । उच्यते-जितक्रोधादिविशेषणेषु तदुदय-विफलीकरणमुक्तं, मार्दव- ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-९--‘संखित्तत्ति - संक्षिप्ता शरीरान्तर्वर्तिनी विपुला प्रधानादिषु तु उदयनिरोधः, अथवा यत एव जितक्रोधादिरत एव क्षमादि- अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रित वस्तुदहनसमर्था तेजोलेश्या-विशिष्टतप्रधान इत्येवं हेतुहेतुमद्भावात् विशेषः ।
पोजन्यलब्धि: विषयप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः । ३. वही--घोरत्ति--घोरो निघृण: परिषहेन्द्रियकषायाख्यानां रिपूणां विनाशे ७. ठाणं १०/१५९ पृ. ९४७
८. ठाणं ३/३८६ तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे सखित्तविउलतेउलेस्से हवइ, तं ४. वही--घोरव्वए ति - घोराणि--अन्यैर्दुरनुचराणि व्रतानि महाव्रतानि यस्य जहा--आयावणताए, खंतिखमाए, अपाणगेण तवोकम्मेणं ।
कर्तव्ये।
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