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तृतीय अध्ययन : सूत्र १९-२२ तं भवियव्वमेत्य कारणेणं ति कटु मालुयाकच्छयं अंतो अणुप्पविसंति । तत्थ णं दो पुढे परियागए पिठंडी-पंडुरे निव्वणे निरुवहए भिण्णमुट्ठिप्पमाणे मयूरी-अंडए पासित्ता अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--सेयं खलु देवाणुप्पिया! अहं इमे वणमयूरी-अंडए साणं जातिमंताणं कुक्कुडियाणं अंडएसु पक्खिवावित्तए । तए णं ताओ जातिमंताओ कुक्कुडियाओ एए अंडए सए य अंडए सएणं पंखवाएणं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरिस्संति । तए णं अम्हं एत्थ दो कीलावणगा मयूरी-पोयगा भविस्संति त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता सए सए दासचेडए सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! इमे अंडए गहाय सगाणं जातिमंताणं कुक्कुडीणं अंडएस पक्खिवह जाव ते वि पक्खिवेंति॥
नायाधम्मकहाओ होना चाहिए--ऐसा सोच उन्होंने मालुकाकक्ष के भीतर प्रवेश किया। वहां उन्होंने पुष्ट, गर्भ के पश्चात् कालक्रम से उत्पन्न चावलों के आटे से बनी पिण्डी-जैसे उजले, निव्रण, निरुपहत और बन्द मुट्ठी जितने बड़े दो मयूरी-अण्डों को देख, एक दूसरे को पुकारा। पुकार कर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! हमारे लिए उचित है, हम इन वनमयूरी के अण्डों को अपनी जाति-सम्पन्न मुर्गियों के अण्डों के साथ रख दें। ऐसा करने से वे जाति-सम्पन्न मुर्गियां इन अण्डों को और अपने अण्डों को अपनी पांखों से ढककर उनका पालन और संगोपन करती हुई विहार करेंगी। इन अण्डों से निष्पन्न दो मयूरी के बच्चे हमारे खिलौने बन जाएंगे--इस प्रकार उन्होंने एक दूसरे के प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर अपने-अपने दासपुत्रों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--जाओ देवानुप्रियो ! तुम इन अण्डों को लेकर अपनी जाति-सम्पन्न मुर्गियों के अण्डों के साथ रख दो, यावत् उन्होंने रख दिए।
२०. तए णं ते सत्थवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स
उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरित्ता तमेव जाणं दुरूढा समाणा जेणेव चंपा नयरी जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता देवदत्ताए गिह अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता देवदत्ताए गणियाए विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति, दलइत्ता सक्कारेंति सम्माणेति सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता देवदत्ताए गिहाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव साई साइं गिहाइं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था।
२०. वे सार्थवाह पुत्र देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान की
उद्यानश्री का अनुभव करते हुए विहार कर, उसी यान पर आरूढ़ हो, जहां चम्पानगरी थी, जहां देवदत्ता गणिका का घर था, वहां आए। वहां आकर देवदत्ता के घर में प्रवेश किया। प्रवेश कर देवदत्ता गणिका को जीवन-निर्वाह योग्य विपुल प्रीतिदान दिया। देकर उसे सत्कृत-सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर देवदत्ता के घर से वापस निकले। निकलकर जहां अपने-अपने घर थे, वहां आए । वहां आकर वे अपने-अपने कार्यों में संप्रयुक्त हो गये।
सागरदत्तपुत्तस्स संदेहेण अंडयविणास-पदं २१. तत्थ णंजे से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारएसेणं कल्लंपाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव से वणमयूरीअंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि मयूरी-अंडयंसि संकिए कंखिए वितिगिंछसमावण्णे भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे किण्णं मम एत्थ कीलावणए मयूरी-पोयए भविस्सइ उदाहु नो भविस्सइ? त्ति कटु तं मयूरीअंडयं अभिक्खणं-अभिक्खणं उव्वत्तेइ परियत्तेइ आसारेइ संसारेइ चालेइ फदेइ घट्टेइ खोभेइ अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलसि टिट्टियावे॥
सागरदत्तपुत्र का सन्देह के द्वारा अण्डविनाश पद २१. किसी समय वह सागरदत्त सार्थवाह का पुत्र उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर जहां वह वन-मयूरी का अण्डा था, वहां आया। वहां आकर वह उस मयूरी के अण्डे के प्रति शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न हो गया। उसने सोचा--इस अण्डे से मेरा खिलौना-मयूरी का बच्चा होगा या नहीं? इस दृष्टि से वह उस मयूरी के अण्डे को बार बार उलटता, पलटता, सरकाता, दूर तक सरकाता, चलाता, स्पन्दित करता, स्पर्श करता, क्षुभित करता और कान के पास ले जाकर उसे बार-बार बजाता।
२२. तए णं से मयूरी-अंडए अभिक्खणं-अभिक्खणं उव्वत्तिज्जमाणे
परियत्तिज्जमाणे आसारिज्जमाणे संसारिज्जमाणे चालिज्जमाणे फंदिज्जमाणे घट्टिज्जमाणे खोभिज्जमाणे अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्टियावेज्जमाणे पोच्चडे जाए यावि होत्था।
२२. इस प्रकार बार-बार उलटने, पलटने, सरकाने, दूर तक सरकाने,
चलाने, स्पन्दित करने, स्पर्श करने, क्षुभित करने और कान के पास ले जाकर बार-बार बजाने से वह मयूरी का अण्डा सारहीन हो गया--पोच गया।
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