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________________ नायाधम्मकहाओ १३९ पांचवां अध्ययन : सूत्र ३४-३७ थावच्चापुत्तस्स पव्वज्जागहण-पदं थावच्चा पुत्र द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण-पद ३४. तए णं से थावच्चापुत्ते पुरिससहस्सेणं सद्धिं सयमेव पंचमुट्ठियं ३४. थावच्चापुत्र ने उन हजार पुरुषों के साथ स्वयं ही पंचमुष्टि लोच लोयं करेइ, करेत्ता जेणामेव अरहा अरिटुनेमी तेणामेव उवागच्छइ, किया। पंचमुष्टि लोच कर जहां अर्हत अरिष्टनेमि थे, वहां आया। उवागच्छित्ता अरहं अरिटुनेमिं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, वहां आकर अरिष्टनेमि को दांयी ओर से प्रारंभ कर तीन बार करेत्ता वंदइ नमसइ जाव पव्वइए। प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदन नमस्कार किया यावत् वह प्रव्रजित हो गया। थावच्चापुत्तस्स अणगारचरिया-पदं ३५. तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारे जाए--इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवणासमिए उच्चारपासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिद्वावणियासमिए मणसमिए वइसमिए कायसमिए मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी अकोहे अमाणे अमाए अलोहे संते पसंते उवसंते परिनिव्वुडे अणासवे अममे अकिंचणे निरुवलेवे, ___कंसपाईव मुक्कतोए संखो इव निरंगणे जीवो विव अप्पडिहयगई गगणमिव निरालंबणे वायुविव अप्पडिबद्धे सारयसलिलं व सुद्धहियए पुक्खरपत्तं पिव निरुवलेवे कुम्मो इव गुत्तिदिए खग्गविसाणं व एगजाए विहग इव विप्पमुक्के भारंडपक्खीव अप्पमत्ते कुंजरो इव सोंडीरे वसभो इव जायत्थामे सीहो इव दुद्धरिसे मंदरो इव निप्पकप सागरो इव गंभीरे चंदो इव सोमलेस्से सूरो इव दित्ततेए जच्चकंचण व जायसवे वसुंधरव्व सव्वफासविसहे सुहुयहुयासणोव्व तेयसा जलते।। थावच्चापुत्र की अनगार चर्या-पद ३५. अब थावच्चापुत्र अनगार हो गया। वह विवेकपूर्वक चलता। विवेक पूर्वक बोलता। विवेक पूर्वक आहार की एषणा करता। विवेकपूर्वक वस्त्र-पात्र आदि को लेता और रखता। विवेकपूर्वक मल-मूत्र, श्लेष्म, नाक के मैल, शरीर के गाढ़े मैल का परिष्ठापन (विसर्जन) करता। मन की संगत प्रवृत्ति करता। वचन की संगत प्रवृत्ति करता। शरीर की संगत प्रवृत्ति करता। मन का निरोध करता। वचन का निरोध करता। शरीर का निरोध करता। अपने आपको सुरक्षित रखता। इन्द्रियों को सुरक्षित रखता। ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखता। क्रोध, मान, माया और लोभ नहीं करता। वह शान्त, प्रशान्त, उपशान्त, परिनिर्वृत', अनास्रव, निर्मम, अकिञ्चन और निरुपलेप था। ___कांस्य-पात्र की भांति निर्लेप, शंख की भांति निरंजन, जीव की भांति अप्रतिहत गति वाला, गगन की भांति निरालम्बन, वायु की भांति अप्रतिबद्ध, शारद-सलिल की भांति शुद्ध हृदय वाला, पद्मपत्र (नलिनी दल) की भांति निरुपलेप, कछुए की भांति गुप्तेन्द्रिय, गेंडे के सींग की भांति अकेला', पक्षी की भांति विप्रमुक्त, भारण्ड पक्षी की भांति अप्रमत्त", कुञ्जर की भांति शूर, वृषभ की भांति बलवान, सिंह की भांति दुर्धर्ष (अपराजेय), मन्दर की भांति निष्प्रकम्प, सागर की भांति गम्भीर, चन्द्र की भांति सौम्य कांति वाला, सूर्य की भांति दीप्त तेज वाला, कंचन की भांति स्वरूपोपलब्ध वसुंधरा की भांति सब प्रकार के स्पर्शों को सहन करने वाला और सुहूय (सम्यक् प्रज्ज्वलित) हुताशन की भांति प्रज्ज्वलित था। ३६. नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे भवइ । (सेय पडिबंधे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ। दव्वओ--सच्चित्ताचित्तमीसेसु । खेत्तओ--गामे वा नगरे वा रणे वा खले वा घरे वा अंगणे वा । कालओ--समए वा आवलियाए वा आणापाणुए वा थोवे वा लवे वा मुहुत्ते वा अहोरत्ते वा पक्खे वा मासे वा अयणे वा संवच्छरे वा अण्णयरे वा दीहकालसंजोए। भावओ--कोहे वा माणे वा माए वा लोहे वा भए वा होसे वा। एवं तस्स न भवइ)। ३६. भगवान थावच्चापुत्र के कहीं भी प्रतिबन्ध नहीं था। (प्रतिबंध चार प्रकार का कहा गया है, जैसे--द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालत:, भावतः । द्रव्यत:-- सचित्त, अचित एवं मिश्र में। क्षेत्रत:--ग्राम, नगर, अरण्य, खल, घर अथवा आंगन में। कालत:--समय, आवलिका, आनापान, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, अयन, संवत्सर अथवा किसी दीर्घकालीन संयोग में। भावत:--क्रोध, मान, माया, लोभ, भय अथवा हास्य में। इस प्रकार का प्रतिबंध उनके नहीं था।] ३७. से णं भगवं वासीचंदणकप्पे समतिणमणि-लेठुकंचणे समसुहढुक्खे ३७. वासी और चंदन में समचित्त तृण और मणि, पत्थर और Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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