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________________ पांचवां अध्ययन : सूत्र ३७-४५ १४० इहलोगपरलोग-अप्पडिबद्धे जीविय-मरण-निरवकखे संसारपारगामी कम्मनिग्घायणट्ठाए एवं च णं विहरइ ।। नायाधम्मकहाओ सोना--उनको समदृष्टि से देखने वाले, सुख और दुःख में सम, इहलोक और परलोक में अप्रतिबद्ध, जीवन और मृत्यु की आकांक्षा से रहित, संसार का पार पाने वाले वे भगवान कर्मों के निर्घातन के लिए इस प्रकार विहार करने लगे। ३८. तए णं से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिखनेमिस्स तहारूवाणं राणं अंतिए सामाइयमाइयाइं चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहर।। ३८. उस थावच्चापुत्र अनगार ने अर्हत अरिष्टनेमि के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि चौहद पूर्वो का अध्ययन किया। अध्ययन कर बहुत सारे चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त, द्वादश भक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। थावच्चापुत्तस्स जणवयविहार-पदं ३९. तए णं अरहा अरिटुनेमी थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स तं इन्भाइयं अणगारसहस्सं सीसत्ताए दलयइ ।। थावच्चापुत्र का जनपद विहार-पद ३९. अर्हत अरिष्टनेमि ने थावच्चापुत्र अनगार को उन इभ्य आदि एक हजार अनगारों को शिष्य रूप में प्रदान किया। ४०. तए णं से थावच्चापुत्ते अण्णया कयाइं अरहं अरिटुनेमिं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अणगारसहस्सेणं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। अहासुहं॥ ४०. किसी समय थावच्चापुत्र अनगार ने अर्हत अरिष्टनेमि को वंदना की, नमस्कार किया। वंदन नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भन्ते! मैं आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर उन हजार अनगारों के साथ अन्यत्र जनपद विहार करना चाहता हूँ।" "जैसा तुम्हें सुख हो।" ४१. थावच्चापत्र एक हजार अनगारों के साथ बाहर जनपदविहार करने ४१. तएणं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरइ॥ लगा। सेलगराय-पदं ४२. तेणं कालेणं तेणं समएणं सेलगपुरे नामं नगरे होत्था । सुभूमिभागे उज्जाणे। सेलए राया। पउमावई देवी। मंडुए कुमारे जुवराया।। शैलकराज-पद ४२. उस काल और उस समय शैलकपुर नाम का नगर था। सुभूमि-भाग उद्यान। शैलक राजा। पद्मावती देवी। मण्डुक कुमार नाम का युवराज। ४३. तस्सणंसेलगस्स पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया होत्या-उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मियाए पारिणामियाए उववेया रज्जधुरं चिंतयंति॥ ४३. उस शैलक राजा के पन्थक प्रमुख पांच सौ मंत्री थे। औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी एवं पारिणामिकी--इस बुद्धि चतुष्टय से युक्त वे राज्य धुरा का चिंतन करते थे। ४४. थावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे। राया निग्गए। ४४. थावच्चापुत्र शैलकपुर में समवसृत हुआ। राजा ने दर्शन के लिए निर्गमन किया। सेलगस्स गिहिधम्म-पडिवत्ति-पदं ४५. तए णं से सेलए राया थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठट्ठ-चित्तमाणदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उठेइ, उठूत्ता थावच्चापुतं अणगारं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता शैलक द्वारा गृहस्थ-धर्म का स्वीकरण-पद ४५. थावच्चापुत्र अनगार के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला शैलक राजा स्फूर्ति के साथ उठा। उठकर थावच्चापुत्र अनगार को दांयी ओर से प्रारंभ कर तीन Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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