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नायाधम्मकहाओ
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नमंसित्ता एवं वयासी-
सद्दहामि णं भंते! निग्गथं पावयणं । पत्तियामि णं भंते! निग्गयं पावयणं । रोएमि णं भंते! निगार्थ पावयणं । अम्भुमि णं भंते! निग्गचं पावपणं । एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भते! इच्छियमेयं भते! पहिच्छयमेयं भते इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते! जं णं तुब्भे वदह त्ति कट्टु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं क्यासी जहा णं देवाणुप्पियाण अंतिए बहवे उग्या उग्गपुता भोगा जाव इब्भा इब्भपुत्ता चिच्चा हिरण्णं, एवं- धणं धन्नं बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं पुरं अंतेउरं, चिच्चा विउलं धण-कणगरयण-मणि- मोत्तिय संख - सिल प्पवाल- संतसार - सावएज्जं, विच्छड्डित्ता विगोवइत्ता, दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता, मुंडा भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वझ्या तहा णं अहं नो संचाएमि जाव पव्वत्तए, अहं गं देवाणुप्पियाणं अतिए चाउज्जामियं गिरिधम्मं पडिवज्जिस्सामि ।
अहासु देवाणुप्पिया! मा परिबंध करेहि ।।
४६. तए गं से सेलए राया बावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए चाउज्जामियं गिहिधम्मं उवसंपज्जइ ।
सेलगस्स समणोवासग चरिया-पदं
४७. तए णं से सेलए राया समणोवासए जाए - - अभिगयजीवाजीवे उवलपुरणपावे आसव-संवर-निज्जर-किरिया अहिगरणबंधमोक्ख - कुसले असहेज्जे देवासुर-गाग- जक्ख- रक्खस- किण्णरकिंपुरिस - गरुल - गंधव्व - महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावपणाओ अणइक्कमणिज्जे, निगांचे पावपणे णिस्सकिए णिक्कंखिए निव्वितिगिच्छे लद्धट्ठे गहियट्ठे पुच्छि अभिगयट्ठे विणिच्छ अभिजयेमाणुरागरते अपमाउसो! निग्यंधे पाक्यणे अड्डे अयं परमडे सेसे अणडे ऊसियफलिहे अवंगुयदुवारे चित्ततेडरपरघरदार -प्पवेसे चाउद्दसमुद्दिद्वपुण्णमासि - णीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणे समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असणपाण- स्खाइम साइमेणं वत्थ पडिग्गह कंबल पायपुसणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएणं य पीढफलग-सेज्जा- संथारएणं पहिलाभेमाणे सील-व्यय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोक्वासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।।
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पांचवां अध्ययन : सूत्र ४५-४७
बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदना नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर इस प्रकार कहा-
भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ । भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर प्रतीति करता हूँ । भन्ते! मै । निर्ग्रन्थ प्रवचन पर रुचि करता हूँ । भन्ते! मैं निर्ग्रन्य प्रवचन (की आराधना) में अभ्युत्थान करता हूँ । यह ऐसा ही है भन्ते! यह तथा (संवादिता पूर्ण) है भी ! यह अवितथ है भन्ते! यह असंदिग्ध है भन्ते! यह इष्ट है भंते! यह प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है भन्ते! यह इष्ट प्रतीप्सित दोनो है भन्ते!
जैसा तुम कह रहे हो -- ऐसा कहकर वंदना की। नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर इस प्रकार कहा- जैसे देवानुप्रिय के पास बहुत से उग्र, उग्रपुत्र, भोग यावत् इभ्य, इभ्यपुत्र, हिरण्य तथा इसी प्रकार धन-धान्य, बल, वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर तथा अन्त: पुर को त्याग कर विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, पद्मराग मणियां श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य और दान भोग आदि के लिए स्वापतेय का परित्याग कर विगोपन कर, हिस्सेदारों को दान देकर मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुए। वैसा करने में यावत् प्रव्रजित होने में मैं समर्थ नहीं हूं। मैं देवानुप्रिय के पास चातुर्यामरूप गृहस्थ धर्म स्वीकार करूंगा।
देवानुप्रिय ! "जैसा तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो।"
४६. शैलक राजा ने घावच्यापुत्र अनगार के पास चातुर्याम रूप गृहस्थ धर्म स्वीकार किया ।
शलक की श्रमणोपासक चर्या पद
४७. शैलक राजा श्रमणोपासक बन गया। जीव अजीव को जानने वाला, पुण्य-पाप के मर्म को समझने वाला, आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के विषय में कुशल, सत्य के प्रति स्वयं निश्चल, देव, असुर, नाग, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व महोरग आदि देवगणों के द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से अविचलनीय, निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंका रहित, कांक्षा रहित, विचिकित्सा रहित यथार्थ को सुनने वाला यथार्थ को ग्रहण करने वाला, उस विषय में पूछने वाला, उसे जानने वाला, उसका विनिश्चय करने वाला, (निर्ग्रन्थ प्रवचन के ) प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थि मज्जा वाला था। आयुष्मान! यह निर्धन्य प्रवचन यथार्थ है, यह परमार्थ है, शेष अनर्थ हैं ( ऐसा मानने वाला) आगल को ऊंचा और दरवाजे को सुला रखने वाला, अन्त: पुर और दूसरों के घरों में बिना किसी रुकावट के प्रवेश करने वाला, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध व्रत का सम्यक् अनुपालन करने वाला, श्रमण निर्ग्रन्थ को प्रासुक एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पाद
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