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पांचवां अध्ययन : सूत्र ४७-५५
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नायाधम्मकहाओ प्रौञ्छन, औषध, भेषज्य तथा प्रातिहारिक, पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक का दान देने वाला बहुत शील व्रत, गुण-विरमण, प्रत्याख्यान
और पोषधोपवास के द्वारा तथा यथापरिगृहीत तप: कर्म के द्वारा आत्मा को भावित कर रहने लगा।
४८. पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया समणोवासया जाया।।
४८. पन्थक प्रमुख पांच सौ मंत्री भी श्रमणोपासक बने।
४९. थावच्चापुत्ते बहिया जणवयविहारं विहरइ।।
४९. थावच्चापुत्र ने शैलकपुर के बाहर जनपदविहार किया।
५०. तेणं कालेणं तेणं समएणं सोगंधिया नामंनयरी होत्था--वण्णओ। नीलासोए उज्जाणे--वण्णओ।।
५०. उस काल और उस समय सौगन्धिका नाम की नगरी थी-वर्णक । वहां
नीलाशोक नाम का उद्यान था--वर्णक।
सुदंसणसेट्ठि-पदं ५१. तत्थ णं सोगंधियाए नयरीए सुदंसणे नामं नयरसेट्ठी परिवसइ,
अड्डे जाव अपरिभूए॥
सुदर्शन श्रेष्ठी-पद ५१. सौगन्धिका नगरी में सुदर्शन नाम का नगर सेठ रहता था। वह आढ्य
यावत् अपराजित था।
सुयपरिव्वायग-पदं ५२. तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए नाम परिव्वायए होत्था-- रिउव्वेय-जजुव्वेय-सामवेय-अथव्वणक्य-सद्वितंतकुसले संखसमए लद्धढे पंचजम-पंचनियमजुत्तं सोयमूलयं दसप्पयारं परिव्वायगधम्म दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणे पण्णवेमाणे धाउरत्त-वत्थ-पवर-परिहिए तिदंड-कुंडिय-छत्तछन्नालय-अंकुस-पक्त्तिय-केसरि-हत्थगए परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिखुडे जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परिव्वायगावसहंसि भंडगनिक्खेवं करेइ, करेत्ता संखसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ॥
शुक परिव्राजक-पद ५२. उस काल और उस समय शुक नाम का परिव्राजक था। वह ऋग्वेद,
यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववद और षष्टितंत्र में कुशल, सांख्यदर्शन के मर्म को जानने वाला, पांच यम और पांच नियमों से युक्त था। वह शौच मूलक दस प्रकार के परिव्राजक धर्म का तथा दान धर्म, शौच- धर्म
और तीर्थाभिषेक का आख्यान और प्ररूपणा करता हुआ प्रवर गेरुए वस्त्र पहने, हाथ में त्रिदण्ड, कमण्डलु, छत्र, त्रिकाष्ठिका, अंकुश, तांबे की अंगुठी और एक वस्त्र-खंड धारण किए हुए एक हजार परिव्राजकों के साथ उनसे परिवृत हो, जहां सौगन्धिका नगरी थी परिव्राजकों का मठ था, वहां आया। वहां आकर परिव्राजकों के मठ में उपकरण रखे। रखकर वहां सांख्य-दर्शन के अनुसार स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा।
५३. तए णं सोगंधियाए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-
चउम्मुह-महापहपहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ--एवं खलु सुए परिव्वायए इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इह चेव सोगंधियाए नयरीए परिव्वायगावसहंसि संखसमएणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥
५३. सौगन्धिका नगरी के दौराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों,
राजमार्गों और मार्गों में जन-समूह परस्पर इस प्रकार आख्यान करने लगा--शुक परिव्राजक यहां आया हुआ हैं, यहां संप्राप्त है, यहां समवसृत है और यहीं सौगन्धिका नगरी के परिव्राजक मठ में सांख्य दर्शन (सिद्धान्त) से स्वयं को भावित करता हुआ विहार कर रहा है।
५४. परिसा निग्गया। सुदंसणो वि णीति॥
५४. जन समूह ने निर्गमन किया। सुदर्शन भी आया।
सोयमूलय-धम्म-पदं ५५. तए णं से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सदसणस्स य अण्णेसिं
च बहूणं संखाणं परिकहेइ--एवं खलु सुदंसणा! अम्हं सोयमूलए धम्मे पण्णत्ते । से वि य सोए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--दव्वसोए य भावसोए य।
शौचमूलक धर्म-पद ५५. शुकार परिव्राजक ने उस परिषद् को, सुदर्शन को तथा अन्य बहुत
से व्यक्तियों को सांख्य दर्शन समझाया--सुदर्शन! हमने शौचमूलक धर्म प्रज्ञप्त किया है। वह शौच भी दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे--द्रव्यशौच और भावशौच। द्रव्यशौच होता है--पानी से, मिट्टी
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