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नायाधम्मकहाओ
पांचवां अध्ययन : सूत्र २९-३३
१३८ सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहओ अरिट्ठनेमिस्स छत्ताइछत्तं पडागाइपडागं विज्जाहर-चारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासइ, पासित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ।।
का यक्षायतन था, जहां प्रवर अशोक वृक्ष था, वहां आया, वहां आकर अर्हत अरिष्टनेमि के छत्रों, अतिछत्रों, पताकाओ, अतिपताकाओं तथा विद्याधर, चारण और जृम्भक देवों को उड़ते, आते-जाते हुए देखा। देखकर वह शिविका से नीचे उतरा।
सिस्सभिक्खादाण-पदं ३०. तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तं पुरओ काउं जेणेव अरहा
अरिट्ठनेमी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अरहं अरिट्ठनेमिं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एस णं देवाणुप्पिया! थावच्चापुत्ते थावच्चाए गाहावइणीए एगे पुत्ते इढे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीवियऊसासए हिययनंदिजणए उंबरपुप्फ पिव दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण दरिसणयाए?
से जहानामए उप्पले ति वा पउमे ति वा कुमुदे ति वा पंके जाए जले संवडिए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव थावच्चापुत्ते कामेसु जाए भोगेसु संवडिए नोवलिप्पइ कामरएणं नोवलिप्पइ भोगरएणं। एस णं देवाणुप्पिया! संसारभउव्विगे भीए जम्मण-जर-मरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अम्हे णं देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खं दलयामो। पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सभिक्खं ।।
शिष्यभिक्षा का दान-पद ३०. कृष्ण वासुदेव थावच्चापुत्र को आगे कर जहां अर्हत अरिष्टनेमि थे वहां
आए। आकर अरिष्टनेमि को दांयी ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदना नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! यह थावच्चापुत्र थावच्चा गृहस्वामिनी का एक मात्र पुत्र है। यह इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभरण करंडक के समान, रत्न, रत्नभूत, जीवन, उच्छ्वास (प्राण) और हृदय को आनन्दित करने वाला है। यह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है, फिर दर्शन का तो कहना ही क्या?
जैसे उत्पल, पद्म अथवा कमल पंक में उत्पन्न होता है और जल में संवर्धित होता है, किन्तु वह पंक रज और जल रज से उपलिप्त नहीं होता। वैसे ही थावच्चापुत्र कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों में संवर्धित हुआ, किन्तु यह काम रज और भोग रज से उपलिप्त नहीं हुआ।
देवानुप्रिय ! यह संसार के भय से उद्विग्न है। जन्म, जरा और मृत्यु से भीत है। यह देवानुप्रिय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रवजित होना चाहता है। इसलिए हम इसे देवानुप्रिय को शिष्य की भिक्षा के रूप में देते हैं।
देवानुप्रिय ! यह शिष्य-भिक्षा को स्वीकार करो।
३१. तए णं अरहा अरिटुनेमी कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वृत्ते समाणे
एयमटुं सम्म पडिसुणेइ॥
३१. कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर अर्हत अरिष्टनेमि ने उनके इस अर्थ
को सम्यक् स्वीकार किया।
३२. तए णं से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिटुनेमिस्स अंतियाओ
उत्तरपुरत्थिमं दिसीभायं अवक्कमइ, सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ॥
३२. वह थावच्चापुत्र अर्हत अरिष्टनेमि के पास से उठकर उत्तर पूर्व दिशा
(ईशान कोण) में गया। वहां उसने स्वयं ही आभरण, माल्य और अलंकार उतारे।
३३. तए णं सा थावच्चा गाहावइणी हसंलक्खणेणं पडसाडएणं
आभरणमल्लालंकारं पडिच्छइ, हार-वारिधार-सिंदुवार- छिन्नमुत्तावलि-प्पगासाई अंसूणि विणिम्मुयमाणी-विणिम्मुयमाणी रोयमाणी-रोयमाणी कंदमाणी-कंदमाणी विलवमाणी-विलवमाणी एवं वयासी--जइयव्वं जाया! घडियव्वं जाया! परिक्कमियव्वं जाया! अस्सिं च णं अढे नो पमाएयव्वं । अम्हंपिणं एसेव मग्गे भवउ त्ति कटु थावच्चा गाहावइणी अहं अरिद्वनेमिं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया।
३३. थावच्चापुत्र की माता थावच्चा गृहस्वामिनी ने हंस लक्षण पट-शाटक
(विशाल-वस्त्र) में उन आभरण, माल्य और अलंकारों को स्वीकार किया। वह हार, जलधारा, सिन्दुवार के फूल और टूटी हुई मोतियों की लड़ी के समान बार-बार आंसू बहाती, रोती, कलपती और विलपती हुई इस प्रकार बोली--जात ! संयम में प्रयत्न करना। जात! संयम में चेष्टा करना। जात ! पराक्रम करना। इस अर्थ में प्रमाद मत करना। हमारा भी यही मार्ग हो ऐसा कहकर थावच्चा गृहस्वामिनी ने अर्हत अरिष्टनेमि को वंदना नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई।
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