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नायाधम्मकहाओ
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पांचवा अध्ययन : सूत्र २४-२९ २४. तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे २४. थावच्चापुत्र के ऐसा कहने पर कृष्ण वासुदेव ने उससे इस प्रकार
थावच्चापुत्तं एवं वयासी--एए णं देवाणुप्पिया दुरइक्कमणिज्जा, कहा--देवानुप्रिय ! ये दोनों (मृत्यु और जरा) दुरतिक्रम्य हैं। अपने नो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा निवारित्तए, कर्म-क्षय के सिवाय, अत्यन्त बलिष्ठदेव अथवा दानव भी इनका नण्णत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं॥
निवारण नहीं कर सकता।
२५. तए णं से थावच्चापुत्ते कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--जइ णं एए
दुरइक्कमणिज्जा, नो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवण वा निवारित्तए, नण्णत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं । तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! अण्णाण-मिच्छत्त-अविरइ-कसाय-संचियस्स अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए॥
२५. थावच्चापुत्र ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! यदि
ये दोनों (मृत्यु और जरा) दुरतिक्रम्य हैं, अपने कर्म क्षय के सिवाय अत्यन्त बलिष्ठ देव अथवा दानव भी इनका निवारण नहीं कर सकता, तो देवानुप्रिय! मैं चाहता हूं अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय के द्वारा संचित अपने कर्मों का क्षय करूं।
कण्हस्स जोगक्खेम-घोसणा-पदं २६. तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे
कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं देवाणुप्पिया! बारवईए नयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह पहेसु हत्थिखंधवरगया महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा उग्घोसणं करेह--एवं खलु देवाणुप्पिया! थावच्चापुत्ते संसारभउब्विग्गे भीए जम्मण-जर-मरणाणं, इच्छइ अरहओ अरिट्टनेमिस्स अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए, तं जो खलु देवाणुप्पिया! राया वा जुवराया वा देवी वा कुमारे वा ईसरे वा तलवरे वा कोडुंबिय-माडंबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहे वा थावच्चापुत्तं पव्वयंतमणुपव्वयइ, तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणइ पच्छाउरस्स वि य से मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणस्स जोगक्खेम-वट्टमाणीं परिवहइ त्ति कटु घोसणं घोसेह जाव घोसंति॥
कृष्ण द्वारा योगक्षेम की घोषणा-पद २६. थावच्चापुत्र के ऐसा कहने पर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को
बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! जाओ, प्रवर हस्ति स्कन्ध पर आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के दोराहों, तिराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में उच्चस्वर से बार-बार उद्घोष करते हुए यह उद्घोषणा करो--देवानुप्रियो। थावच्चापुत्र संसार के भय से उद्विग्न है। जन्म, जरा और मृत्यु से भीत है। वह अर्हत अरिष्टनेमि के पास मुण्ड हो प्रव्रजित होना चाहता है, अत: देवानुप्रियो! जो भी राजा, युवराज, देवी, कुमार, ईश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, माडम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति अथवा सार्थवाह प्रव्रजित होने वाले थावच्चापुत्र के साथ प्रव्रजित होता है, तो उसे कृष्ण वासुदेव अनुमति देता है और (उसकी) दीक्षा के पश्चात् दु:खी जो अपना योगक्षेम करने में समर्थ नहीं हैं उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजन के योगक्षेम और आजीविका के परिवहन का भार लेता है। यह घोषणा करो यावत् उन्होंने घोषणा की।
थावच्चापुत्तस्स अभिनिक्खमण-पदं २७. तए णं थावच्चापुत्तस्स अणुराएणं पुरिससहस्सं निक्खमणाभिमुहं
ण्हायं सव्वालंकारविभूसियं पत्तेयं-पत्तेयं पुरिससहस्सवाहिणीस सिवियासु दुरूढं समाणं मित्त-नाइ-परिवुडं थावच्चाफुत्तस्स अंतियं पाउब्भूयं॥
थावच्चापुत्र का अभिनिष्क्रमण-पद २७. थावच्चापुत्र के अनुराग से एक हजार पुरुष अभिनिष्क्रमण के लिए
तैयार हो गए। वे स्नान कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली अपनी-अपनी शिविकाओं पर आरूढ़ और मित्र-ज्ञाति से परिवृत हो थावच्चापुत्र के समक्ष उपस्थित हुए।
२८. तए णं से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्सं अंतियं पाउब्भवमाणं पासइ, पासित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--जहा मेहस्स निक्खमणाभिसेओ खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभ- सयसन्निविट्ठ जाव सीयं उवट्ठवेह ।।
२८. कृष्ण वासुदेव ने अपने सामने उपस्थित हजार पुरुषों को देखा। उन्हें
देखकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--अभिनिष्क्रमण की वक्तव्यता मेघकुमार की भांति । देवानुप्रियो! शीघ्र ही सैकड़ों खम्भों से युक्त यावत् शिविका उपस्थित करो।
२९. तए णं से थावच्चापत्ते बारवतीए नयरीए मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव रेवतगपव्वए जेणेव नंदणवणे उज्जाणे जेणेव
२९. थावच्चापुत्र ने द्वारवती नगरी के बीचोंबीच होकर निर्गमन किया।
जहां रैवतक पर्वत था, जहां नंदनवन उद्यान था, जहां सुरप्रिय यक्ष
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