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________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ११६-११९ ३२२ नायाधम्मकहाओ ११६. तए णं सा सूमालिया गोवालियाणं अज्जाणं एयमद्वं नो आढाइ ११६. सुकुमालिका ने आर्या गोपालिका के इस अर्थ को न आदर दिया और नो परियाणाइ, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी विहरइ।। न उसकी बात पर ध्यान दिया। वह उसे आदर न देती हुई, उसकी बात पर ध्यान न देती हुई विहार करने लगी। ११७. तए णंताओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं अभिक्खणं-अभिक्खणं ११७. वे आर्याएं आर्या सुकुमालिका की बार-बार अवहेलना करती, निन्दा होलेति निर्देति खिसेति गरिहति परिभवंति, अभिक्खणं-अभिक्खणं करती, कुत्सा करती, गर्दा करती, पराभव करती और बार-बार इस एयमद्वं निवारेंति॥ प्रमाद से रोकतीं। सूमालियाए पुढोविहार-पदं सुकुमालिका का पृथक विहार पद ११८. तए णं तीसे सूमालियाए समणीहिं निग्गंथीहिं हीलिज्जमाणीए ११८. उन श्रमणी निर्ग्रन्थिकाओं द्वारा बार-बार अवहेलना, निन्दा, निदिज्ज्माणीए खिसिज्जमाणीए गरिहिज्जमाणीए परिभविज्जमाणीए कुत्सा, गर्दा तथा पराभव करने और बार-बार उस प्रमाद से रोके अभिक्खणं-अभिक्खणं एयमटुं निवारिज्जमाणीए इमेयारूवे जाने पर उस सुकुमालिका के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, अझथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--जया चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--जब मैं अगार णं अहं अगारमझे वसामि, तया णं अहं अप्पवसा । जया णं अहं वास में थी, तब मैं स्वतंत्र थी। जब मैं मुण्ड हो प्रवजित हो गई, मुंडा भवित्ता पव्वइया, तया णं अहं परवसा । पुव्विं च णं मम तब मैं परतन्त्र हो गई। पहले ये श्रमणियां मुझे आदर देती थी, समणीओ आढति परिजाणति, इयाणिंनो आति नो परिजाणंति । मेरी ओर ध्यान देती थीं। अब वे न मुझे आदर देती है और न तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे मेरी ओर ध्यान देती हैं। अत: मेरे लिए उचित है मैं उषाकाल सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे.तेयसा जलते गोवालियाणं अज्जाणं में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान अंतियाओ पडिनिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर गोपालिका आर्या के पास से विहरित्तए त्ति कटु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए प्रतिनिष्क्रमण कर पृथक उपाश्रय को स्वीकार कर विहार करूं--उसने रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् गोवालियाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ पाडिएक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ।। जाने पर उसने गोपालिका आर्या के पास से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर पृथक उपाश्रय को स्वीकार कर विहार करने लगी। ११९. तए णं सा सूमालिया अज्जा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, सीसं धोवेइ, मुहं धोबेइ, थणंतराई घोवेइ, कक्खंतराइं धोवेइ, गुज्झंतराई धोवेइ, जत्थ णं ठाणं वा सेज्जंवा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ वि यणं पुव्वामेव उदएणं अन्भुक्खेत्ता तओ पच्छा ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेएइ। तत्थ वि यणं पासत्था पासस्थविहारिणी ओसन्ना ओसन्नविहारिणी कुसीला कुसीलविहारिणी संसत्ता संसत्तविहारिणी बहूणि वासाणि सामण्णपरियागंपाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता, तीसं भत्ताइं अणसणाए छेएत्ता, तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे अण्णयरंसि विमाणसि देवगणियत्ताए उववण्णा। तत्थेगइयाणं देवीणं नवपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं सूमालियाए देवीए नवपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता।। ११९. वह सुकुमालिका आर्या बिना किसी रोक-टोक के स्वतंत्रता पूर्वक बार-बार हाथ धोती, पांव धोती, सिर धोती, मुंह धोती, स्तनान्तर धोती, कक्षान्तर धोती, गुह्यान्तर धोती और जहां-जहां भी स्थान, शय्या अथवा निषद्या करती उस भूमि को पहले ही पानी से धोकर उसके पश्चात् वहां स्थान, शय्या और निषद्या करती। वहां भी उसने पार्श्वस्था, पार्श्वस्थ-विहारिणी, अवसन्ना, अवसन्ना-विहारिणी, कुशीला, कुशील-विहारिणी, संसक्ता और संस्कत-विहारिणी होकर बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया। पालन कर पाक्षिक संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर अनशन काल में तीस भक्तों का परित्याग कर, उस प्रमाद स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना, मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, ईशान कल्प के किसी विमान में देवगणिका के रूप में उपपन्न हुई। वहां कुछ देवियों की स्थिति नौ पल्योपम बतलायी गई है। वहां सुकुमालिका देवी की स्थिति भी नौ पल्योपम थी। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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