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________________ नायाधम्मकहाओ ३२१ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ११०-११५ ११०. तत्थ णं चंपाए देवदत्ता नामं गणिया होत्था--सूमाला जहा ११०. उस चम्पानगरी में देवदत्ता नाम की गणिका थी। वह सुकुमार थी। अंड-नाए। उसका वर्णन अण्ड-ज्ञात (ज्ञाता-अध्ययन तीन) की भांति ज्ञातव्य है। १११. तए णं तीसे ललियाए गोट्ठीए अण्णया कयाइ पंच गोट्ठिल्लगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरति ।। १११. किसी समय उस ललिता गोष्ठी के पांच गोष्ठिल-पुरुष (सदस्य) देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान की उद्यान-श्री का अनुभव करते हुए विहार कर रहे थे। ११२. तत्थ णं एगे गोट्ठिल्लगपुरिसे देवदत्तं गणियं उच्छंगे घरेइ, एगे पिट्ठओ आयवत्तं घरेइ, एगे पुप्फपूरगं रएइ, एगे पाए रएइ, एगे चामरुक्खेवं करेइ।। ११२. वहां एक गोष्ठिलपुरुष ने देवदत्ता गणिका को गोद में लिया। एक ने पीछे स्थित हो छत्र धारण किया। एक ने पुष्प-शेखर की रचना की। एक ने उसके पावों पर अलक्तक (महावर) की रचना की और एक ने चंवर डुलाया। ११३. तए णं सा सूमालिया अज्जा देवदत्तं गणियं तेहिं पंचहिं गोहिल्लपुरिसेहिं सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणिं पासइ, पासित्ता इमेयारूवे संकप्पे समुप्पज्जित्था--अहो णं इमा इत्थिया पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं कडाणं कल्लाणाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणी विहरइ। तं जइणं केइ इमस्स सुचरियस्स तव-नियम-बंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, तो णं अहमवि आगमिस्सेणं भवग्गहणेणं इमेयारूवाई उरालाईमाणुस्सगाईभोगभोगाइं मुंजमाणी विहरिज्जामि त्ति कटु नियाणं करेइ, करेत्ता आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ।। ११३. सुकुमालिका आर्या ने देवदत्ता गणिका को उन पांच गोष्ठिल पुरुषों के साथ प्रधान मनुष्य सम्बन्धी भोगार्ह भोगों को भोगते हुए देखा। देखकर उसके मन में इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ--अहो! यह स्त्री पूर्वकृत, पुरातन, सुचीर्ण, सुपराक्रान्त, कल्याणकारी कर्मो के कल्याणकारी फलविशेष का अनुभव करती हुई विहार करती है। अत: यदि इस सुचरित तप, नियम और ब्रह्मचर्य का कोई कल्याणकारी फलविशेष है तो मैं भी भावी जीवन में इसी प्रकार के प्रधान मनुष्य सम्बन्धी भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार करूं। उसने ऐसा निदान किया। निदान कर आतापना भूमि से चली गई। सूमालियाए बाउसियत्त-पदं ११४. तए णं सा सूमालिया अज्जा सरीरबाउसिया जाया यावि होत्था--अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, सीसं घोवेइ, मुहं धोवेइ, थणंतराइंधोवेइ, कक्खंतराइं धोवेइ, गुज्झंतराई धोवेइ, जत्थ णं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ वि यणं पुष्वामेव उदएणं अन्भुक्खेत्ता तओ पच्छा ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ॥ सुकुमालिका का बकुशता-पद ११४. वह सुकुमालिका आर्या शरीरबकुशा हो गई--वह बार-बार हाथ धोती, पांव धोती, सिर धोती, मुंह धोती, स्तनान्तर धोती, कक्षान्तर धोती, गुह्यान्तर धोती और जहां जहां भी स्थान, शय्या अथवा निषद्या करती उस भूमि को पहले ही पानी से धोकर उसके पश्चात् वहां स्थान, शय्या और निषद्या करती। ११५. तए णं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं एवं वयासी--एवं खलु अज्जे! अम्हे समणीओ निग्गंधीओ इरियासमियाओ जाव बंभचेरधारिणीओ।नो खलु कप्पइ अम्हं सरीरबाउसियाए होत्तए। तुमं च णं अज्जे सरीरबाउसिया अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवेसि, पाए धोवेसि, सीसं घोवेसि, मुहं धोवेसि, पणंतराइं धोवेसि, कक्खंतराइं धोवेसि, गुमंतराई घोवेसि, जत्थ णं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएसि, तत्थ वि य णं पुवामेव उदएणं अब्भुक्खेत्ता तओ पच्छा ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएसि । तं तमं णं देवाणुप्पिए! एयस्स ठाणस्स आलोएहि निंदाहि गरिहाहि पडिक्कमाहि विउट्टाहि विसोहेहि अकरणयाए अन्भुढेहि, अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जाहि॥ ११५. आर्या गोपालिका ने सुकुमालिका आर्या से इस प्रकार कहा--आर्ये! हम श्रमणियां, निर्ग्रन्थिकाएं, ईर्या समिति से समित यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियां हैं। हमें शरीरबकुश होना नहीं कल्पता और आर्ये! तुम शरीर-बकुशा होकर बार-बार हाथ धोती हो, पांव धोती हो, सिर धोती हो, मुंह धोती हो, स्तनान्तर धोती हो, कक्षान्तर धोती हो, गुह्यान्तर धोती हो और जहां-जहां भी स्थान, शय्या अथवा निषद्या करती हो उस भूमि को पहले ही पानी से धोकर उसके पश्चात् वहां स्थान, शय्या और निषद्या करती हो। देवानुप्रिये! तुम इस स्थान की आलोचना करो। निन्दा करो, गर्दा करो, प्रतिक्रमण करो, विवर्तन (निवृत्त होने का संकल्प) करो, विशोधन करो, भविष्य में ऐसा प्रमाद न करने के लिए अभ्युत्थान करो और यथायोग्य तप:कर्म रूप, प्रायश्चित्त स्वीकार करो। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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