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________________ उन्नीसवां अध्ययन : सूत्र ३२-३७ ३९० नायाधम्मकहाओ कंडरीयस्स पव्वज्जा-परिच्चाय-पदं कण्डरीक द्वारा प्रव्रज्या परित्याग-पद ३२. तए णं से कंडरीए थेरेहिं सद्धिं कंचि कालं उग्गंउग्गेणं विहरित्ता ३२. कण्डरीक ने कुछ समय तक स्थविरों के साथ अति उग्र विहार किया। तओ पच्छा समणत्तण-परितते समणत्तण-निविण्णे समणत्तण- उसके पश्चात् वह श्रामण्य से परिक्लान्त, श्रामण्य से उदासीन, श्रामण्य निब्भच्छिए समणगुण-मुक्कजोगी थेराणं अंतियाओ सणियं-सणियं के प्रति अनादर युक्त भावों तथा श्रमणोचित गुणों से मुक्त योग वाला पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव पुंडरीगिणी नयरी जेणेव हो गया। वह धीरे-धीरे स्थविरों के पास से खिसक गया। वहां से खिसक पुंडरीयस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवणियाए कर, वह जहां पुण्डरीकिणी नगरी थी, जहां पुण्दरीक का भवन था, वहां असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टगंसि निसीयइ, निसीइत्ता आया। वहां आकर अशोक-वनिका में प्रवर अशोक-वृक्ष के नीचे ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियायमाणे पृथ्वी-शिलापट्ट पर बैठ गया। बैठकर भान-हृदय हो हथेली पर मुंह संचिट्ठइ। टिकाए आर्तध्यान में डूबा हुआ चिन्ता-मग्न हो रहा था। ३३. तए णं तस्स पोंडरीयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टसि ओहयमणसंकप्पंजाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुंडरीयं रायं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! तव पियभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ। ३३. उस पुण्डरीक की धायमाता जहां अशोक-वनिका थी, वहां आयी। वहां आकर प्रवर अशोक-वृक्ष के नीचे, पृथ्वी-शिलापट्ट पर कण्डरीक अनगार को भग्न-हृदय यावत् चिन्ता-मग्न देखा। देखकर वह जहां पुण्डरीक था, वहां आयी। आकर राजा पुण्डरीक से इस प्रकार बोली--देवानुप्रिय! तुम्हारा प्रिय भ्राता कण्डरीक अनगार अशोक-वनिका में प्रवर अशोक-वृक्ष के नीचे पृथ्वी-शिलापट्ट पर भग्न-हृदय यावत् चिन्ता-मग्न हो रहा है। ३४. तए णं से पंडरीए अम्मधाईए एयमढे सोच्चा निसम्म तहेव संभंते समाणे उठाए उढेइ, उद्वेत्ता अंतेउर-परियालसंपरिखडे जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--धन्नेसि णं तुम देवाणुप्पिया! कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! तव माणुस्सए जम्म-जीवियफले जाव अगाराओ अणगारियं पव्वइए, अहं णं अधन्ने अकयत्थे अकयपुण्णे अकयलक्खणे जाव नो संचाएमि पव्वइत्तए। तं धन्नेसि णं तुम देवाणुप्पिया! जाव सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! तव माणुस्सए जम्म-जीवियफले।। ३४. धायमाता से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर, वह पुण्डरीक वैसे ही सम्भ्रान्त हो स्फूर्ति के साथ उठा। उठकर अन्त:पुर से परिवृत हो, जहां अशोक-वनिका थी, वहां आया। वहां आकर कण्डरीक अनगार को तीन बार दायीं ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! तुम धन्य हो। कृतार्थ हो। कृतपुण्य हो। कृतलक्षण हो। देवानुप्रिय! तुमने मनुष्य के जन्म और जीवन का फल पाया है। यावत् तुम मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुए हो। ___ मैं निश्चित ही अधन्य हूँ , अकृतार्थ हूँ, अकृतपुण्य हूँ और अकृतलक्षण हूँ यावत् मैं प्रव्रजित नहीं हो सका। अत: देवानुप्रिय! तुम धन्य हो यावत् देवानुप्रिय! तुमने मनुष्य के जन्म और जीवन का वास्तविक फल पाया है। ३५. तए णं कंडरीए पुंडरीएणं एवं वृत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ। दोच्चंपि तच्चंपि पुंडरीएणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ॥ ३५. पुण्डरीक के ऐसा कहने पर कण्डरीक मौन रहा। दूसरी-तीसरी बार भी पुण्डरीक के ऐसा कहने पर वह मौन रहा। ३६. तए णं पुंडरीए कंडरीयं एवं वयासी--अट्ठो भंते! भोगेहिं? हता! अट्ठो। ३६. पुण्डरीक ने कण्डरीक से इस प्रकार पूछा--भन्ते! क्या तुम्हें भोगों से प्रयोजन है? हां, प्रयोजन है। ३७. तए णं से पुंडरीए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! कंडरीयस्स महत्थं महग्धं महरिहं विउलंरायाभिसेयं उवट्ठवह जाव रायाभिसेएणं अभिसिंचति ।। ३७. राजा पुण्डरीक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही कण्डरीक के लिए महान अर्थवान, महान मूल्यावान और महान अर्हता वाले विपुल राज्याभिषेक की उपस्थापना करो यावत् उसको राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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