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________________ नायाधम्मकहाओ १९७ अष्टम अध्ययन : सूत्र ९७-१०४ ९७. तए णं से रुप्पी राया सुबाहुं दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता ९७. राजा रुक्मी ने कन्या सुबाहु को अपनी गोद में बिठाया। बिठाकर सुबाहूए दारियाए रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य जायविम्हए कन्या सुबाहु के रूप, यौवन और लावण्य से विस्मित होकर उसने वरिसधरं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-तुम णं देवाणुप्पिया! कञ्चुकी को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम मेरे मम दोच्चेणं बहूणि गामागर-नगर जाव सण्णिवेसाई आहिंडसि, दौत्यकार्य से अनेक गांव, आकर, नगर यावत् सान्निवेशों में घूमते हो, बहूण य राईसर जाव सत्थवाहपभिईणं गिहाणि अणुप्पविससि, तं अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के घरों में प्रवेश करते हो, अत्थियाइं ते कस्सइ रण्णो वा ईसरस्स वा कहिंचि एयारिसए तो क्या तुमने किसी भी राजा, ईश्वर आदि के यहां या अन्यत्र भी कहीं मज्जणए दिठ्ठपुव्वे, जारिसए णं इमीसे सुबाहूए दारियाए मज्जणए? ऐसा मज्जन (महोत्सव) देखा है, जैसा इस सुबाहु बालिका का 'मज्जन' (महोत्सव) हुआ है? ९८. तए णं से वरिसघरे रुप्पिं रायं करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवं खलु सामी! अहं अण्णया तुभं दोच्चेणं मिहिलं गए। तत्थ णं मए कुंभगस्स रण्णो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायवरकन्नगाए मज्जणए दिढे । तस्स णं मज्जणगस्स इमे सुबाहूए दारियाए मज्जणए सयसहस्सइमपि कलंन अग्घइ। ९८. कञ्चुकी ने सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिका कर राजा रुक्मी से इस प्रकार कहा--स्वामिन् ! मैं एक बार आपके दौत्यकर्म से मिथिला गया था। वहां मैने राजा कुम्भ की पुत्री, प्रभावती देवी की आत्मजा, विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का मज्जन-महोत्सव देखा था। सुबाहु बालिका का यह मज्जन तो मल्ली के उस मज्जन के लक्षांश में भी नहीं आता। ९९. तए णं से. रुप्पी राया वरिसधरस्स अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म मज्जणगजणिय-हासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--जाव मल्लिं विदेहरायवरकन्नं मम भारियत्ताए वरेहि, जइ वि य णं सा सयं रज्जसुंका।। ९९. कञ्चुकी के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर राजा रुक्मी के मन में उस 'मज्जन' के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। उसने दूत को बुलाया। दूत को बुलाकर इस प्रकार कहा यावत् विदेह की प्रवर-राजकन्या मल्ली को मेरी भार्या के रूप में वरण करो। फिर उसका मूल्य राज्य जितना भी क्यों न हो। १००. तए णं से दूए रुप्पिणा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे जाव जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। १००. रुक्मी द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट होकर दूत ने यावत्-प्रस्थान किया। संख-राय-पदं १०१. तेणं कालेणं तेणं समएणं कासी नामंजणवए होत्था । तत्थ णं वाणारसी नाम नयरी होत्था। तत्थ णं संखे नाम कासीराया होत्था॥ शंखराज-पद १०१. उस काल और उस समय काशी नाम का जनपद था। वहां वाराणसी नाम की नगरी थी। वहां शंख नाम का काशी का राजा था। १०२. तए णं तीसे मल्लीए विदेहवररायकन्नाए अण्णया कयाइं तस्स १०२. किसी समय विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के उस दिव्य दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए यावि होत्था॥ कुण्डल-युगल की सन्धि खुल गई। १०३. तए णं से कुंभए राया सुवण्णगारसेणिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुब्भेणं देवाणुप्पिया। इमस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधिं संघाडेह, (संघाडेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह?)॥ १०३. उस राजा कुम्भ ने स्वर्णकार श्रेणि को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम इस दिव्य कुण्डल-युगल की सन्धि को जोड़ दो। (जोड़कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो?)। १०४. तएणंसा सुवण्णगारसेणी एयमद्वं तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सुवण्णगार-भिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवण्णगार-भिसियासु निवेसेइ, निवेसेत्ता बहूहिं आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मयाहि य पारिणामियाहि य बृद्धीहिं परिणामेमाणा इच्छंति १०४. उस स्वर्णकार श्रेणि ने इस अर्थ को 'तथेति' कहकर स्वीकार किया। स्वीकार कर उस दिव्य कुण्डल-युगल को लिया । लेकर जहां स्वर्णकारों का आसन था वहां आए। वहां आकर स्वर्णकार-वृषिकाओं (आसन) पर बैठे। वहां बैठकर अनेक आय-उपायों द्वारा तथा औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धियों के प्रयोगों Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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