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________________ नायाधम्मकहाओ अष्टम अध्ययन : सूत्र १०४-१०९ १९८ तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधिं घडित्तए, नो चेव णं संचाएइ घडित्तए॥ द्वारा उस दिव्य कुण्डल-युगल की सन्धि को जोड़ना चाहा, किन्तु जोड़ नहीं पाए। १०५. तए णं सा सुवण्णगारसेणी जेणेव कुंभए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु सामी! अज्ज तुम्हे अम्हे सद्दावेह, जाव संधि संघाडेता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं अम्हे तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हामो, गेण्हित्ता जेणेव सुवण्णगार-भिसियाओ तेणेव उवागच्छामो जाव नो संचाएमो संधि संघाडेत्तए। तए णं अम्हे सामी! एयस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स अण्णं सरिसयं कुंडलजुयलं घडेमो॥ १०५. वह स्वर्णकार-श्रेणी जहां राजा कुंभ था वहां आई। वहां आकर उसने दोनों हथेलियां से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से राजा का वर्धापन किया। वर्धापन कर इस प्रकार कहा--स्वामिन् ! आज आपने हमें बुलाया और कहा कि दिव्यकुण्डल-युगल की सन्धि को जोड़ो। जोड़कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। तब हमने उस दिव्यकुण्डल-युगल को लिया। लेकर जहां स्वर्णकारों के आसन थे वहां गए। यावत् हम उसे जोड़ नहीं पाए तो स्वामिन् ! हम इस दिव्य-कुण्डल-युगल जैसा दूसरा कुण्डल-युगल बना दें। १०६. तए णं से कुंभए राया तीसे सुवण्णगारसेणीए अंतिए एयम? सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते रुटे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु एवं वयासी--केस णं तुब्भे कलाया णं भवह, जेणं तुन्भे इमस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स नो संचाएह संधि संघाडित्तए? ते सुवण्णगारे निव्विसए आणवेइ।। १०६. वह राजा कुम्भ स्वर्णकार-श्रेणि से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर क्रोध से तमतमा उठा। वह रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलता हुआ, त्रिवलीयुक्त भृकुटि को ललाट पर चढ़ाकर इस प्रकार बोला--कैसे स्वर्णकार हो तुम, जो इस दिव्य कुण्डल की सन्धि को भी नहीं जोड़ सकते। उसने उन स्वर्णकारों को निर्वासन का आदेश दिया। १०७. तए णं ते सुवण्णगारा कुंभगेणं रण्णा निव्विसया आणत्ता समाणा जेणेव साइ-साइंगिहाईतेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाए रायहाणीए मझमज्झेणं निक्खमंति, निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झमझेणं निक्खमंति, निक्खमित्ता जेणेव कासी जणवए जेणेव वाणारसी नयरी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अग्गुज्जाणंसि सगडीसागडं मोएंति, मोएत्ता महत्थं जाव पाहुडं गेहंति, गेण्हित्ता वाणारसीए नयरीए मझमझेणं जेणेव संखे कासीराया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेति, वद्धावेत्ता पाहुडं उवणेति, उवणेत्ता एवं वयासी--अम्हे णं सामी! मिहिलाओ कुंभएणं रण्णा निव्विसया आणत्ता समाणा इह हव्वमागया। तं इच्छामो णं सामी! तुब्भं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया निरुव्विग्गा सुहंसुहेणं परिवसिउं॥ १०७. वे स्वर्णकार राजा कुम्भ से निर्वासन का आदेश पाकर, जहां अपने-अपने घर थे, वहां आए। वहां आकर अपने-अपने भाण्ड, भाजन और उपकरणों को लेकर, मिथिला नगरी के बीचोंबीच से होकर निकले। निकलकर विदेह जनपद के बीचोंबीच से होकर निकले। वहां से निकलकर जहां काशी जनपद था, जहां वाराणसी नगरी थी, वहां आए। वहां आकर प्रधान उद्यान में छोटे-बड़े वाहनों को मुक्त किया। मुक्त कर महान अर्थवान यावत् उपहार लिए। उपहार लेकर वाराणसी नगरी के बीचोंबीच से होते हुए, जहां काशीराज शंख था, वहां आए। वहां आकर दोनों हाथों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से राजा का वर्धापन किया। वर्धापन कर उपहार उपहृत किए। उपहृत कर इस प्रकार कहा-स्वामिन! राजा कुम्भ द्वारा मिथिला से निर्वासन का आदेश प्राप्त कर हम तत्काल यहां चले आए। अत: स्वामिन्! हम चाहते हैं कि आपकी बाहुच्छाया से परिगृहीत हो, निर्भीक, निरुद्विग्न और सुखपूर्वक रहें। १०८. तए णं संखे कासीराया ते सुवण्णगारे एवं वयासी--किं णं तुब्भे देवाणुप्पिया! कुंभएणं रण्णा निव्विसया आणत्ता? १०८. काशीराज शंख ने उन स्वर्णकारों से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो किस कारण से राजा कुम्भ ने तुम्हें निर्वासन का आदेश दिया? १०९. तए णं ते सुवण्णगारा संखं कासीराय एवं वयासी--एवं खलु सामी! कुंभगस्स रणो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए । तए णं से १०९. उन स्वर्णकारों ने काशीराज शंख से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! राजा कुम्भ की पुत्री प्रभावती देवी की आत्मजा विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के कुण्डल-युगल की सन्धि खुल गयी। तब उस राजा Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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