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नायाधम्मकहाओ
१९९ कुंभए राया सुवण्णगारसेणिं सद्दावेइ जाव निविसया आणत्ता। तं एएणं कारणेणं सामी! अम्हे कुंभएणं रण्णा निव्विसया आणत्ता।।
अष्टम अध्ययन : सूत्र १०९-११८ कुम्भ ने स्वर्णकार श्रेणि को बुलाया यावत् हमें निर्वासन का आदेश दे दिया। स्वामिन्! इस कारण से राजा कुम्भ ने हमें निर्वासन का आदेश दिया।
११०. तए णं से संखे कासीराया सुवण्णगारे एवं वयासी--केरिसिया
णं देवाणुप्पिया! कुंभगस्स रण्णो धूया पभावईदेवीए अत्तया मल्ली विदेहरायवरकन्ना?
११०. उस काशीराज शंख ने स्वर्णकारों से इस प्रकार कहा-कैसी है
देवानुप्रियो! राजा कुम्भ की पुत्री प्रभावती देवी की आत्मजा विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली?
१११. तए णं ते सुवण्णगारा संखं कासीरायं एवं वयासी--नो खलु
सामी! अण्णा कावि तारिसिया देवकन्ना वा असुरकन्ना वा नागकन्ना वा जक्खकन्ना वा गंधव्वकन्ना वा रायकन्ना वा जारिसिया णं मल्ली विदेहवररायकन्ना॥
१११. वे स्वर्णकार काशीराज शंख से इस प्रकार बोले--स्वामिन्! अन्य
कोई भी देवकन्या, असुरकन्या, नागकन्या, यक्षकन्या, गन्धर्वकन्या अथवा राजकन्या वैसी नहीं है जैसी विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली
११२. तए णं से संखे कासीराया कुंडल-जणिय-हासे दूयं सद्दावेइ,
सद्दावेत्ता एवं वयासी--जाव मल्लि विदेहरायवरकन्नं मम भारियत्ताए वरेहि, जइ वि य णं सा सयं रज्जसुंका।।
११२. काशीराज शंख के मन में कुण्डल के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ।
उसने दूत को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा---यावत् विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को मेरी भार्या के रूप में वरण करो। फिर उसका मूल्य राज्य जितना भी क्यों न हो।
-११३. तए णं से दूए संखेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतढे जेणेव मिहिला
नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
११३. शंख द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट होकर दूत ने यावत् प्रस्थान किया।
अदीणसत्तु-राय-पदं ११४. तेणं कालेणं तेणं समएणं कुरुनामंजणवए होत्था। तत्थ णं
हत्थिणाउरे नाम नयरे होत्था। तत्थ णं अदीणसत्तू नाम राया होत्था जाव पसासेमाणे विहरइ।।
अदीनशत्रुराज-पद ११४. उस काल और उस समय कुरु नाम का जनपद था। वहां हस्तिनापुर
नाम का नगर था। अदीनशत्रु नाम का राजा था यावत् वह राज्य का प्रशासन करता हुआ विहार कर रहा था।
११५. तत्थ णं मिहिलाए तस्स णं कुंभगस्स रण्णो पुत्ते पभावईए
देवीए अत्तए मल्लीए अणुमग्गजायए मल्लदिन्ने नाम कुमारे सुकुमालपाणिपाए जाव जुवराया यावि होत्था॥
११५. उस मिथिला में राजा कुम्भ का पुत्र, प्रभावती देवी का आत्मज,
मल्ली का अनुजात मल्लदत्त नाम का कुमार था। वह सुकुमार हाथ-पावों वाला यावत् युवराज भी था।
११६. तए णं मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाइ कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, ११६. किसी समय मल्लदत्त कुमार ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें
सद्दावेत्ता एव वयासी--गच्छह णं तुब्भे मम पमदवणंसि एगं महं बुलाकर इस प्रकार कहा--जाओ, तुम मेरे प्रमदवन में एक महान चित्तसभं करेह--अणेगखंभसयसण्णिविट्ठ एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। चित्रसभा कराओ। वह अनेक शत खम्भों पर सन्निविष्ट हो। इस तेवि तहेव पच्चप्पिणंति ।।
आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया।
११७. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे चित्तगर-सेणिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता
एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! चित्तसभं हाव-भावविलास-बिब्बोयकलिएहिं रूवेहिं चित्तेह, चित्तेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।।
११७. मल्लदत्त कुमार ने चित्रकार श्रेणि को बुलाया। उसे बुलाकर इस
प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम चित्र सभा को हाव-भाव-विलास और विब्बोक (दर्पवश इष्ट वस्तु में अनादर का भाव) युक्तर रूपों से चित्रित करो। चित्रित कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो।
११८. तए णं सा चित्तगर-सेणी एयमढे तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता
११८. चित्रकार-श्रेणि ने इस अर्थ को 'तथेति' कहकर स्वीकार किया।
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