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अष्टम अध्ययन सूत्र ११८-१२४
जेणेव सवाइ गिहाई तेणेव उवागच्छद्र, उवागच्छित्ता तुलियाओ वण्णए य गेहइ, गेण्हित्ता जेणेव चित्तसभा तेणेव अणुप्पविसइ, अणुपविसित्ता भूमिभागे विरचति, विरचित्ता भूमिं सज्जेइ, सज्जेत्ता चित्तसभं हाव-भाव - विलास - बिब्बोयकलिएहिं रूवेहिं चितेउं पवत्ता यानि होत्या ।।
११९. तए णं एगस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगर-लद्धी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया--जस्स णं दुपयस्स वा चउप्पयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासइ, तस्स णं देसाणुसारेणं तयाणुरूवं निव्वत्तेइ ॥
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१२०. तए णं से चित्तगरे मल्लीए जवणियंतरियाए जालंतरेण पायगुडं पास। तए णं तस्स चित्तगरस्त इमेयारूवे अज्झत्विए जाव समुप्पज्जित्था -- सेयं खलु ममं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पायंगुट्ठाणुसारेणं सरिसगं सरित्तयं सरिव्वयं सरिसलावण्ण-रूवजोम्यग-गुणोववेवं रूवं निव्यत्तित्तए एवं सपेहेड, सपेहेत्ता भूमिभागं सज्जेइ, सज्जेत्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पायंगुट्टाणुसारेण सरिसगं जाव रूवं निव्वत्तेइ ।।
१२१. तए णं सा चित्तगर-सेगी वित्तसभ हाव-भाव-विलासदिब्योपकलिएहिं रूवेहिं चित्ते, चित्तेत्ता जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उपागच्छइ उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पच्चपिणइ ।।
१२२. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे चित्तगर-सेणिं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेता विपुलं जीविचारिहं पोइदाणं दलबद्द दतदत्ता पडिविसज्जे ।।
१२३. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे पहाए अंतेउर - परियाल - संपरिवुडे अम्मधाईए सद्धिं जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छद् उवागच्छिता चित्तसभं अणुष्पविसह, अणुष्यविसित्ता हाव-भाव-विलासबिब्बोय - कलियाई रुवाइं पासमाणे- पासमाणे जेणेव मल्लीए विदेहरायवर कन्नाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए तेणेव पहारेत्य गमणाए ।
१२४. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरूवं रूवं निव्वत्तियं पासइ, पासित्ता इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्यज्जित्था एस गं मल्ली विदेहरायवरकन्ने ति कट्टु सज्जिए विलिए वेडे सणियं सणियं पच्चीसक्कइ ।।
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नायाधम्मकहाओ
स्वीकार कर जहां अपने घर थे वहां आयी। वहां आकर तुलिकाएं और रंग लिए । लेकर जहां चित्रसभा थी, वहां प्रवेश किया। प्रवेश कर भूमिभाग पर विभिन्न रचनाएं (रेखांकन) की रचना कर भूमि को सज्जित (चित्रकर्म योग्य) किया । सज्जित कर चित्र सभा को हाव-भाव-विलास और विब्बोक युक्त रूपों से चित्रित करने के लिए प्रयत्नशील हो गई।
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११९. एक चित्रकार को यह विशेष प्रकार की चित्रकार लब्धि उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत थी जिस द्विपद, चतुष्पद अथवा अपद के एक भाग को भी देखता तो उस एक भाग के अनुसार उसका तदनुरूप चित्र बना लेता ।
१२०. उस चित्रकार ने गवाक्ष से यवनिका के भीतर बैठी मल्ली के पांव का अंगूठा देखा। उस चित्रकार के मन में इस प्रकार का आन्तरिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ-मेरे लिए उचित है, मैं विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के पांव के अंगूठे के अनुसार उसी के सदृश, समान त्वचा, समान वय, समान लावण्य, रूप, यौवन और गुणों से युक्त रूप का आलेखन करूं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की सप्रेक्षा कर भूमिभाग को सज्जित (चित्रकर्म योग्य) किया । सज्जित कर विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के पांव के अंगूठे के अनुसार उसी के सदृश यावत् रूप का आलेखन कर दिया।
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१२१. उस चित्रकार श्रेणि ने उस चित्रसभा को हाव-भाव-विलास और विब्बोक युक्त रूपों से चित्रित किया। चित्रित कर जहां मल्लदत्त कुमार था, वहां आयी। वहां आकर इस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया ।
१२२. कुमार मल्लदत्त ने उस चित्रकार श्रेणि को सत्कृत किया, सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर विपुल जीविका योग्य प्रीतिदान दिया । प्रीतिदान देकर उसे विसर्जित कर दिया।
१२३. कुमार मल्लदत्त स्नान कर अन्तःपुर परिवार से संपरिवृत हो, धायमाता के साथ जहां वह चित्रसभा थी वहां आया। वहां आकर चित्रसभा में प्रवेश किया। प्रवेश कर हाव, भाव, विलास और विब्बोक से युक्त 'रूपों को देखता देखता जहां विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का जो तदनुरूप चित्र आलेखित था, उधर जाने का निश्चय किया।
१२४. वहां कुमार मल्लदत्त ने विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का जो तदनुरूप चित्र आलेखित था, उसे देखा। उसे देखकर उसके मन में इस प्रकार का आन्तरिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ-- यह तो विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली है - ऐसा सोचकर वह लज्जित, व्रीडित और अपमानित अनुभव करता हुआ धीरे-धीरे वहां से सरक गया।
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