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नायाधम्मकहाओ
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१२५. तए णं तं मल्लदिन्नं कुमारं अम्मधाई सणियं-सणियं
पच्चोसक्कंतं पासित्ता एवं वयासी--किण्णं तुमं पुत्ता! लज्जिए विलिए वेड्डे सणियं-सणियं पच्चोसक्कसि?
अष्टम अध्ययन : सूत्र १२५-१३१ १२५. कुमार मल्लदत्त को चित्रसभा से धीरे-धीरे सरकते हुए देखकर
उसकी धायमाता ने पूछा--पुत्र! तू लज्जित, व्रीडित और अपमानित अनुभव करता हुआ चित्रसभा से धीरे-धीरे क्यों सरक रहा है?
१२६. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे अम्मधाई एवं वयासी--जुत्तं णं
अम्मो! मम जेट्ठाए भगिणीए गुरु-देवयभूयाए लज्जणिज्जाए मम चित्तसभं अणुपविसित्तए?
१२६. मल्लदत्त कुमार ने धायमाता से इस प्रकार कहा--अम्मा! जिससे
लज्जा करना उचित है, उस देव और गुरु तुल्य ज्येष्ठ भगिनी के रहते, चित्रसभा में प्रवेश करना क्या मेरे लिए उचित है?
१२७. तए णं अम्मधाई मल्लदिन्नं कुमार एवं वयासी--नो खलु
पुत्ता! एस मल्ली विदेहरायवरकन्ना । एस णं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए चित्तगरएणं तयाणरूवे रूवे निव्वत्तिए।
१२७. धायमाता ने कुमार मल्लदत्त से इस प्रकार कहा--पुत्र! यह विदेह
की प्रवर राजकन्या मल्ली नहीं है। यह तो चित्रकार द्वारा आलेखित विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का उसी जैसा चित्र है।
१२८. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे अम्मधाईए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते एवं वयासी--केस णं भो! से चित्तारए अपत्थियपत्थए, दुरंत-पंत-लक्खणे, हीणपुण्णचाउद्दसिए, सिरिहिरि-धिइ-कित्ति-परिवज्जिए, जे णं मम जेट्ठाए भगिणीए गुरु-देवयभूयाए लज्जणिज्जाए मम चित्तसभाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए त्ति कटु तं चित्तगरं वझं आणवेइ।
१२८. धायमाता से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर कुमार मल्लदत्त
क्रोध से तमतमा उठा। वह इस प्रकार बोला--कौन है रे! वह अप्रार्थित का प्रार्थी, दुरन्त प्रान्त लक्षण, हीन पुण्य चातुर्दशिक, श्री, ही धृति और कीर्ति से शून्य, चितेरा जिसने, जिससे लज्जा करना उचित है उस देव और गुरु तुल्य ज्येष्ठ भगिनी का उसी के सदृश चित्र मेरी चित्रसभा में आलेखित किया है। ऐसा कहकर उसने उस चित्रकार के वध का आदेश दे दिया।
१२९. तए णं सा चित्तगर-सेणी इमोसे कहाए लद्धट्ठा समाणा जेणेव
मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ वद्धाक्ता एवं वयासी--एवं खलु सामी! तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगर-लद्धी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया--जस्स णं दुपयस्स वा चउप्पयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासइ, तस्स णं देसाणुसारेणं तयाणुरूवं रूवं निव्वत्तेइ। तं मा णं सामी! तुब्भे तं चित्तगरं वज्झं आणवेह । तं तुन्भे णं सामी! तस्स चित्तगरस्स अण्णं तयाणुरूवं दंडं निव्वत्तेह ।।
१२९. जब उस चित्रकार श्रेणि को इस बात का पता चला तब वह जहां
कुमार मल्लदत्त था, वहां आयी। वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर इस प्रकार कहा--स्वामिन्! उस चित्रकार को यह विशिष्ट चित्रकार-लब्धि लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत है। वह जिस द्विपद, चतुष्पद अथवा अपद के एक भाग को भी देख लेता है, उस एक भाग के अनुसार तदनुरूप चित्र बना लेता है। इसलिए स्वामिन! तुम उस चित्रकार को वध का आदेश मत दो। स्वामिन्! तुम उस चित्रकार को तदनुरूप अन्य दण्ड दे दो।
१३०. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे तस्स चित्तगरस्स संडासगं छिंदावेइ,
छिंदावेत्ता निव्विसयं आणवेइ।।
१३०. कुमार मल्लदत्त ने उस चित्रकार के संडासग (अंगूठे और अंगुली
के पकड़ का भाग) का छेदन करवा दिया। छेदन करवाकर उसे निर्वासन का आदेश दे दिया।
१३१. तए णं से चित्तगरे मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निव्विसए आणत्ते
समाणे सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाओ नयरीओ निक्खमइ, निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मझमझेणं जेणेव कुरुजणवए जेणेव हत्थिणाउरे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंडनिक्खेवं करेइ, करेत्ता चित्तफलगं सज्जेइ, सज्जेत्ता मल्लीए
१३१. चित्रकार कुमार मल्लदत्त द्वारा निर्वासन का आदेश प्राप्त कर, अपने
भाण्ड, भाजन और उपकरण लेकर मिथिला नगरी से निकला। निकलकर विदेह जनपद के बीचोंबीच से होता हुआ वहां कुरु जनपद था, जहां हस्तिनापुर नगर था, वहां आया। जहां आकर भाण्ड रखे, रखकर चित्रपट को सज्जित किया। सज्जित कर विदेह की प्रवर
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