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नायाधम्मकहाओ
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गिज्झइ नो मुज्झइ नो अज्झोवज्झइ नो विप्पडिघायमावज्जइ, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं साक्यिाण य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे (नमंसणिज्जे?) पूणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं (विणएणं?) पज्जुवासणिज्जे भवइ ।
परलोए वि यणं नो आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य तालणाणि य जाव चाउरतं संसारकतारं वीईवइस्सइ--जहा व से पुंडरीए अणगारे।।
उन्नीसवां अध्ययन : सूत्र ४७-४९ होता, गृद्ध नहीं होता, मूढ़ नहीं होता, अध्युपपन्न नहीं होता, संयम से भ्रष्ट नहीं होता वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, (नमस्करणीय) पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याणकारी, मंगलमय, देवतातुल्य, चैत्य और (विनयपूर्वक) पर्युपासनीय होता है।
परलोक में भी वह बहुत दण्ड, मुण्डन, तर्जना और ताड़ना को प्राप्त नहीं होता यावत् वह चार अन्त वाले संसारी-रूपी कान्तार को पार पा लेगा, जैसे--वह पुण्डरीक अनगार।
निक्खेव-पदं ४८. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं
सयंसंबुद्धणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेण एगूणवीसइमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते।
निक्षेप-पद ४८. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता, तीर्थंकर, स्वयं संबुद्ध यावत्
सिद्धि गति नामक स्थान को सम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के उन्नीसवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है।
वृत्तिकार समुद्धृता निगमनगाथा
वाससहस्सपि जइ, काऊणं संजमं सुविउलंपि। अंते किलिट्ठभावो, न विसुज्झइ कंडरीउ व्व।।१।।
वृत्तिकार द्वारा समुद्धत निगमन गाथा-- १. हजार वर्ष तक भी सुविपुल संयम की साधना कर लेने पर भी यदि अन्त
समय में भाव संक्लेशपूर्ण हो जाता है, वह कण्डरीक की भांति विशुद्धि को प्राप्त नहीं होता।
अप्पेण वि कालेणं, केइ जहा गहिय-सील-सामण्णा। साहति नियम-कज्जं, पुंडरीय-महारिसि ब्व जहा ।२।।
२. कुछ साधक यथागृहीत शील और श्रामण्य का पालन कर महर्षि
पुण्डरीक की भांति स्वल्प समय में ही अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेते
४९. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयखंघस्स अयमढे पण्णत्ते।
त्ति बेमि।।
४९. जम्बू इस प्रकार सिद्धि गति सम्प्राप्त यावत् श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है।
___ -ऐसा मैं कहता हूं।
परिसेसो
एयस्स सुयखंघस्स एगूणवीसं अज्झयणाणि एक्कासरगाणि एगूणवीसाए दिवसेसु समप्पंति ।।
परिशेष ___ इस श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन हैं। जो अन्तराल रहित उन्नीस दिनों में समाप्त होते हैं।
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