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नायाधम्मकहाओ
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तुन्भेणं अज्जाओ बहुनायाओ बहुलिक्खियाओ बहुपडियाओ बहूणि गामागर-नगर-खेड-कब-दोगमुह-मब-ण-आसम-नियमसंबाह-सण्णिवेसाइं आहिंडह, बहूणं राईसर- तलवर - माडंबिय - कोडुबिय- इब्भ-सेट्टि - सेणावइ-सत्थवाहपभिईणं गिहाई अणुपविसह । तं अत्पिपाइं भे अज्जाओ! केद्र कहिंचि पुण्णजोए वा मंतजोगे वा कम्मणजोए वा कम्मजोए वा हियउड्डावणे वा काउड्डावणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा कोउयकम्मे वा भूयकम्मे वा मूले वा कदे वा खल्लीबल्ली खिलिया वा गुलिया वा ओतहे वा भेसज्जे वा उवलद्धपव्वे, जेणाहं तेयलिपुत्तस्स पुणरवि इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा भवेज्जामि ?
अज्जा-संघाडगस्स उत्तर-पदं
४४. तए णं ताओ अज्जाओ पोट्टिलाए एवं वुत्ताओ समाणीओ दोवि कण्णे ठएंति, ठवेत्ता पोहिलं एवं क्यासी अम्हे णं देवाणुप्पिए! समणीओ निगांधीओ जाव गुत्तबंभचारिणीओ। नो खलु कप्पद अम्हं एप्पमारं कण्णेहिं वि निसामित्तए, किमंग पुण उवदसित्तए वा आयरितए वा ? अम्हे णं तव देवाणुप्पिए! विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्मं परिकहिज्जामो ॥
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पोट्टिलाए साविया - पदं
४५. तए णं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एवं वयासी - - इच्छामि गं अज्जाओ! सुब्धं अंतिए केवलिपण्णत्तं धम्मं निसामित्तए ।
४६. तए णं ताओ अज्जाओ पोट्टिलाए विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्मं परिकहेंति ।।
४७. तए णं सा पोट्टिता धम्मं सोच्या निसम्म हड्डा एवं वयासी -- सद्दाहामि णं अज्जाओ! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वयह। इच्छामि णं अहं तुब्भं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिरिधम्मं पडिवज्जित्तए । अहासुहं देवाप्पिए!
४८. तए णं सा पोट्टिता तासिं अज्जाणं अतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्मं परिवज्जइ, ताओ अज्जाओ बंद नमसइ, वंदित्ता सत्ता पडिविसज्जेइ ।।
४९. तए णं सा पोड़िता समणोवासिया जाया जाव समणे निग्गंधे फासुए एसगिज्जे असण- पाण- साइम साइमेण कत्य-पटियाहकंबल - पायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीट - फलग सेज्जा संधारएणं पहिलाभेमाणी विहरह ।।
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चौदहवां अध्ययन : सूत्र ४३-४९ परिभोग की तो बात ही कहां?
अतः आर्याओ! तुम बहुत जानकार हो, बहुत शिक्षित हो, बहुत पढ़ी-लिखी हो और अनेक गांव आकर, नगर, सेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पत्तन, आश्रम, निगम, संबाह और सन्निवेशों में घूमती हो, तथा बहुत से राजा, ईश्वर, तलवर, माइम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति सार्थवाह आदि के घरों में प्रवेश करती हो. तो आर्याओ! कही कोई चूर्णयोग, मंत्रयोग, कार्मणयोग, कर्मयोग, चित्ताकर्षण, शरीराकर्षण, पराभिभवन, वशीकरण, कौतुककर्म, भूतिकर्म, मूल, कंद, छल्ली वल्ली, शिलिका गुटिका, औषध अथवा भेषज्य उपलब्ध हुआ है, जिससे मैं तेलीपुत्र को पुनः इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत हो
जाऊ
आर्या संघाटक का उत्तर-पद
४४. पोट्टिला के ऐसा कहने पर उन आर्याओं ने दोनों कान बंद कर लिए। दोनों कान बंद कर वे पोहिला से इस प्रकार बोली- देवानुप्रिये! हम श्रमणियां निग्रन्यिकाएं यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियां हैं। हमें इस प्रकार का शब्द सुनना भी नहीं कल्पता, फिर उपदेश और आचरण का तो प्रश्न ही कहां ?
देवानुप्रिये! हम तुझे विचित्र केवली - प्रज्ञप्त धर्म सुनाती हैं।
पोहिला का श्राविका पद
४५. पोहिला ने उन आर्याओं से इस प्रकार कहा- आर्याओ! मैं चाहती हूँ तुमसे केवली - प्रज्ञप्त धर्म सुनूं ।
४६. उन आर्याओं ने पोट्टिला को विचित्र केवली -प्रशप्त धर्म सुनाया।
४७. धर्म को सुनकर, अवधारण कर हर्षित हुई पोट्टिला ने इस प्रकार कहा-- आर्याओ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ, यावत् वह वैसा ही है जैसा तुम कह रही हो। मैं तुम्हारे पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृही-धर्म स्वीकार करना चाहती हूँ । जैसा तुम्हें सुख हो देवानुप्रिये!
४८. पोट्टिला ने उन आर्याओं के पास पांच अणुव्रत यावत् गृही-धर्म को स्वीकार किया। उन आर्याओं को वन्दना की । नमस्कार किया। वन्दना - नमस्कार कर उन्हें प्रतिविसर्जित कर दिया।
४९. पोट्टला श्रमणोपासका बन गई यावत् वह श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रामुक्त, एषणीय, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद- प्रोञ्छन, औषध, भेषज्य तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक से प्रतिलाभित करती हुई विहार करने लगी ।
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