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चौदहवां अध्ययन : सूत्र ३९-४३
२८२ विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य विहरइ।।
नायाधम्मकहाओ में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को तैयार कराती। तैयार कराकर बहुत से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, कृपणों और वनीपकों को दान देती और दिलाती हुई विहार करने लगी।
अज्जा-संघाडगस्स भिक्खायरियागमण-पदं ४०. तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नाम अज्जाओ इरियासमियाओ भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाण-भंड-मत्तणिक्खेवणासमियाओ उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणियासमियाओ मणसमियाओ वइसमियाओ कायसमियाओ मणगुत्ताओ वइगुत्ताओ कायगुत्ताओ गुत्ताओ गुत्तिंदियाओ गुत्तबंभचारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुब्विं चरमाणीओ जेणामेव तेयलिपुरे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरति ।।
आर्या-संघाटक का भिक्षा के लिए आगमन-पद ४०. उस काल और उस समय सुब्रता नाम की आर्या थी। वह ईर्या-समिति,
भाषा-समिति, एषणा-समिति, आदान-भाण्ड अमत्रनिक्षेपणा-समिति, उच्चार-प्रस्रवण-क्ष्वेड-सिंघाण-जल्ल- परिष्ठापनिका समिति, मन समिति, वचन समिति और काय समिति से समित, मन गुप्ति, भाषा-गुप्ति, काय गुप्ति से गुप्त, गुप्तेन्द्रिय, गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत और बहु परिवार वाली थी। वे क्रमश: संचार करती हुई जहां तेतलीपुर नगर था, वहां आयी। वहां आकर समुचित आवास को प्राप्त किया। प्राप्त कर संयम और तप से स्वयं को भावित करती हुई विहार करने लगी।
४१. तए णं तासिं सुव्वयाणं अज्जाणं एगे संघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, भायणवत्थाणि पडिलेहेइ, भायणाणि पमज्जेइ, भायणाणि ओग्गाहेइ, जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, सुव्वयाओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामो णं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए तेयलीपुरे नयरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए।
अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि।।
४१. आर्या सुव्रता का एक संघाटक प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करता, दूसरे प्रहर में ध्यान करता, तीसरे प्रहर में अत्वरित, अचपल एवं असंभ्रान्त-भाव से मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करता। भाजन-वस्त्रों का प्रतिलेखन करता। पात्रों का प्रमार्जन करता और पात्रों को लेकर जहां आर्या सुव्रता थी वहां आता। आर्या सुव्रता को वन्दना करता। नमस्कार करता। वन्दना-नमस्कार कर आर्या सुव्रता से इस प्रकार कहता--हम आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर, तेतलीपुर नगर के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों के घरों में सामुदानिक भिक्षा के लिए जाना चाहती हैं।
जैसा सुख हो देवानुप्रिये! प्रतिबंध मत करो।
४२. तए णं ताओ अज्जाओ सुव्वयाहिं अज्जाहिं अब्भणुण्णाया
समाणीओ सुन्वयाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिस्सयाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए गतीए जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणीओ तेयलीपुरे नयरे उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अडमाणीओ तेयलिस्स गिहं अणुपविट्ठाओ।
४२. आर्या सुव्रता से अनुज्ञा प्राप्त कर उन आर्याओं ने आर्या सुव्रता के पास
से उठकर उपाश्रय से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर अत्वरित, अचपल और असंभ्रान्त गति से युग-परिमित भूमि का प्रलोकन करने वाली दृष्टि से आगे-आगे ईर्या का शोधन करते हुए, तेतलीपुर नगर के ऊंच, नीच और मध्यम कुल के घरों में सामुदानिक भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए तेतली के घर में प्रवेश किया। .
पोट्टिलाए अमच्चपसायोवाय-पुच्छा-पदं ४३. तए णं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासइ,
पासित्ता हद्वतुट्ठा आसणाओ अब्भुढेइ, वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेइ, पडिलाभेत्ता एवं वयासी--एवं खलु अहं अज्जाओ! तेयलिपुत्तस्स अमच्चस्स पुव्विं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अर्कता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया। नेच्छइ णं तेयलिपुत्ते मम नामगोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? तं
पोट्टिला द्वारा अमात्य को प्रसन्न करने का उपाय पृच्छा-पद ४३. पोट्टिला ने उन आर्याओं को आते हुए देखा। देखकर वह हृष्ट-तुष्ट हो आसन से उठी। वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से उन्हें प्रतिलाभित किया। प्रतिलाभित कर वह इस प्रकार बोली--आर्याओ! मैं पहले अमात्य तेतलीपुत्र को इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत थी। अब अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत हो गई हूँ। तेतलीपुत्र मेरा नाम-गोत्र भी सुनना नहीं चाहता, दर्शन और
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