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________________ नायाधम्मकहाओ २८१ चौदहवां अध्ययन : सूत्र ३२-३९ ३२. तए णं कणगरहे राया तीसे मएल्लियाए दारियाए नीहरणं ३२. राजा कनकरथ ने उस मृत-बालिका का निर्हरण किया। नाना प्रकार करेइ, बहूई लोगियाइं मयकिच्चाई करेइ, करेत्ता कालेणं विगयसोए के लौकिक मृतक-कार्य सम्पन्न किए और सम्पन्न कर यथासमय वह जाए। शोक-मुक्त हो गया है। अमच्चपुत्तस्स उस्सव-पदं ३३. तए णं से तेयलिपुत्ते कल्लं कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चारगसोहणं करेह जाव ठिइपडियं दसदेवसियं करेह, कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह॥ अमात्य पुत्र का उत्सव-पद ३३. तेतलीपुत्र ने प्रभातकाल में कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही चारक-शोधन (बन्दी-जनों को मुक्त) करो यावत् कुल परम्परा के अनुसार दस दैवसिक उत्सव करो और करवाओ। इस आज्ञा को पुन: मुझे प्रत्यर्पित करो। ३४. तेवि तहेव करेंति, तहेव पच्चप्पिणंति।। ३४. उन्होंने भी वैसे ही किया, वैसे ही आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। ३५. जम्हा णं अम्हं एस दारए कणगरहस्स रज्जे जाए तं होउ णं दारए नामेणं कणगच्झए जाव अलंभोगसमत्थे जाए। ३५. हमारा यह बालक राजा कनकरथ के राज्य में जन्मा है अत: इसका नाम कनकध्वज' हो यावत् वह कनकध्वज पूर्ण भोग समर्थ हुआ। पोट्टिलाए अप्पियत्त-पदं ३६. तए णं सा पोट्टिला अण्णया कयाइ तेयलिपुत्तस्स अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणण्णा अमणामा जाया यावि होत्था--नेच्छइणं तेयलिपुत्ते पोट्टिलाए नामगोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? पोट्टिला का अप्रियता-पद ३६. वह पोट्टिला किसी समय तेतलीपुत्र को अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत लगने लगी। तेतलीपुत्र पोट्टिला का नाम-गोत्र भी सुनना नहीं चाहता दर्शन और परिभोग की तो बात ही कहां? ३७. तए णं तीसे पोट्टिलाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं तेयलिस्स पुव्विं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया। नेच्छइ णं तेयलिपुत्ते मम नामगोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? (ति कटु?) ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियायइ। ३७. एक बार मध्यरात्रि के समय पोट्टिला के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--मैं तेतलीपुत्र को पहले इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, और मनोगत थी। अब अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत हो गई हूं। तेतलीपुत्र मेरा नाम-गोत्र भी सुनना नहीं चाहता, दर्शन और परिभोग की तो बात ही कहां? (इस प्रकार?) वह भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्त ध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न हो रही थी। पोट्टिलाए दाणसाला-पदं ३८. तए णं तेयलिपुत्ते पोट्टिलं ओहयमणसंकप्पं करतलपल्हत्थमूहि अट्टज्झाणोवगयं झियायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी--मा णं तुम देवाणुप्पिए! ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाहि । तुमं णं मम महाणसंसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेहि, उवक्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवण- वणीमगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य विहराहि।। पोट्टिला का दानशाला-पद ३८. तेतलीपुत्र ने पोट्टिला को भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न देखा। देखकर इस प्रकार ___बोला--देवानुप्रिये! तुम भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्त-ध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न मत बनो। तुम मेरी पाकशाला में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को तैयार कराओ। तैयार करवाकर बहुत-से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, कृपणों और वनीपकों को दान देती और दिलाती हुई विहार करो। ३९. तए णं सा पोट्टिला तेयलिपुत्तेणं अमच्चेणं एवं वृत्ता समाणी हट्ठा तेयलिपुत्तस्स एयमद्वं पडिसणेइ, पडिसणेत्ता कल्लाकल्लिं महाणससि ३९. अमात्य तेतलीपुत्र के ऐसा कहने पर हर्षित हुई पोट्टिला ने तेतलीपुत्र के इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार कर वह प्रतिदिन पाकशाला Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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