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________________ नायाधम्मकहाओ ११३ मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था--जण्णं देवाणुप्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, तण्णं अम्मेहिं एगययो समेच्चा नित्थरियव्वं ति कटु अण्णमण्णमेयारूवं संगारंपडिसुणेति, पडिसुणेत्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था॥ तृतीय अध्ययन : सूत्र ७-९ हुआ--देवानुप्रियो! हमारे सामने सुख या दु:ख, प्रव्रज्या या विदेश गमन--कोई भी प्रसंग आता है तो हमें मिलजुल कर एक साथ उसको पार करना है--इस प्रकार उन्होंने परस्पर प्रतिज्ञा स्वीकार की। स्वीकार कर अपने-अपने कार्यों में संप्रयुक्त हो गए। देवदत्ता गणिया-पदं ८. तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया परिवसइ--अड्ढा दित्ता वित्ता वित्थिण्ण-विउल-भवण-सयणासण-जाण-वाहणा बहुधण-जायरूव-रयया आओग-पओग-संपउत्ता विच्छड्डिय-पउरभत्तपाणा चउसट्ठिकलापंडिया चउसद्विगणियागुणोवक्या अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एक्कवीस-रइगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसला नवंगसुत्तपडिबोहिया अट्ठारसदेसीभासाविसारया सिंगारागारचारवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-चेट्ठिय-विलाससलावुल्लाव-निउणजुत्तोवयारकुसला ऊसियज्झया सहस्सलंभा विदिण्णछत्त-चामरबालवीयणिया कण्णीरहप्पयाया वि होत्था। __ बहूणं गणियासहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टितं महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चं कारेमाणी पालेमाणी महयाऽहय-नट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंगपडप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ।। देवदत्ता गणिका-पद ८. उस चम्पानगरी में देवदत्ता नाम की गणिका रहती थी। वह आढ्य, दीप्त और विख्यात थी। उसके भवन, शयन, आसन, यान और वाहन विस्तीर्ण और विपुल थे। उसके पास प्रचुर धन और प्रचुर सोने-चांदी थे। वह अर्थ के आयोग-प्रयोग (लेन-देन) में संप्रयुक्त और भक्त-पान का प्रचुर मात्रा में वितरण करने वाली थी। चौसठ कलाओं में पंडित, चौसठ गणिका गुणों से युक्त उनतीस विशेषों में रमण करने वाली, इक्कीस रतिगुणों से प्रधान और पुरुषों को आकर्षित करने वाले बत्तीस गुणों में कुशल थी। उसके सुप्त नौ अंग जागृत हो चुके थे (वह नवयोवना थी)। वह अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में विशारद थी। उसका सुन्दर वेष शृंगार-घर जैसा लगता था। वह औचित्यपूर्ण चलने, हंसने, बोलने और चेष्टा करने में, विलास में, लालित्यपूर्ण संलाप में निपुण और समुचित उपचार में कुशल थी। उसके भवन पर पताकाएं फहराती थी। वह सहस्र-मुद्राओं में उपलब्ध होती थी। छत्र, चंवर और बाल-वीजन उसे (राजा द्वारा) उपहार में प्राप्त थे। वह कर्णीरथ पर आरूढ़ होकर चलती थी। ___ वह हजारों गणिकाओं का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व, आज्ञा, ऐश्वर्य और सेनापतित्व करती हुई, उनका पालन करती हुई तथा महान आहत नाट्य, गीत, वाद्य, तन्त्री, तल, ताल, तूरी तथा घन-मृदंग के पटु-प्रवादित स्वरों के साथ विपुल भोगार्ह भोगों का उपभोग करती हुई विहार कर रही थी। सत्यवाहदारगाणं उज्जाणकीडा-पदं ९. तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अण्णया कयाइ पुव्वावर- बहकालसमयंसि जिमियभुत्तुत्तरागयाणं समाणाणं आयंताणंचोक्खाणं परमसुइभूयाणं सुहासणवरगयाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था--सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं धूव-पुष्फ-गंध-वत्थ-मल्लालंकारं गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुन्भवमाणाणं विहरित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमटुं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता कल्लंपाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते कोडुंबियपुरिसे सद्दावेंति सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं देवाणुप्पिया! विपुलं असणपाण-खाइम-साइमं उवक्खडेह, उवक्खडेत्ता तं विपुलं असण सार्थवाह पुत्रों का उद्यानक्रीड़ा-पद ९. किसी समय पूर्व अपराह्नकाल में भोजनोपरान्त आचमन कर साफ-सुथरे और परम-पवित्र हो बैठने के स्थान पर आ, प्रवर सुखासन में आसीन, उन सार्थवाह पुत्रों में परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप हुआ--हमारे लिए उचित है देवानुप्रियो ! हम उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तैयार करवाकर उस विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा धूप, पुष्प, गन्धचूर्ण, वस्त्र, माला और अलंकार को साथ ले, देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान की उद्यान श्री का अनुभव करते हुए विहार करें--इस प्रकार उन्होंने एक दूसरे के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--जाओ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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