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________________ नायाधम्मकहाओ ३३१ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १६०-१६४ १६०. तए णं से धट्ठज्जुणे कुमारे दोवईए रायवरकण्णाए सारत्थं १६०. उस धृष्टद्युम्न कुमार ने प्रवर राजकन्या द्रौपदी का सारथ्य किया। करेइ॥ १६१. तए णं सा दोवई रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नयरं मझमझेणं जेणेव सयंवरामंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं सयंवरामंडवं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पणामं करे।।। १६१. वह प्रवर राजकन्या काम्पिल्यपुर नगर के बीचोंबीच होती हुई, जहां स्वयंवर मण्डप था, वहां आयी। आकर रथ को ठहराया। ठहराकर रथ से नीचे उतरी। उतरकर क्रीडनधात्री लेखिका के साथ स्वयंवरमण्डप में प्रवेश किया। प्रवेश कर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं को प्रणाम किया। १६२. तए णं सा दोवई रायवरकण्णा एगं महं सिरिदामगंडं--किं ते? पाडल-मल्लिय-चंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधद्धणिं मुयंतं परमसुहफासंदरिसणिज्जं--गेण्हइ॥ १६२. प्रवर राजकन्या द्रौपदी ने एक महान श्री दामकाण्ड नाम की माला हाथ में ली। वह कैसी है? पाटल, बेला, चम्पक यावत् सप्तच्छद आदि फूलों से निर्मित, घ्राण को तृप्ति देने वाले गन्धमय परमाणुओं को बिखेरने वाली, परम सुखद स्पर्श वाली और दर्शनीय थी। १६३. तए णं सा किड्डाविया सुरूवा साभावियघंसं वोद्दहजणस्स उस्सुयकर विचित्तमणि-रयण-बद्धच्छरुहं वामहत्येणं चिल्लगं दप्पणं गहेऊण सललियं दप्पणसंकंतबिंब-संदसिए य से दाहिणेणं हत्येणं दरिसए पवररायसीहे। फुडविसयविसुद्ध-रिभिय-गंभीरमहुरभणिया सा तेसिं सव्वेसिं पत्थिवाणं अम्मापिउवंससत्त-सामत्थ-गोत्त-विक्कंति-कंति-बहुविहआगम-माहप्परूव-कुलसीलजाणिया कित्तणं करेइ । पढमं ताव वण्हिपुंगवाणं दसारवर-वीरपुरिस-तेलोक्कबलवगाणं, सत्तु-सयसहस्समाणावमद्दगाणं भवसिद्धिय-वरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बलवीरिय-रूव-जोवण्ण-गुण-लावण्णकित्तिया कित्तणं करे।। तओ पुणो उग्गसेणमाईण जायवाणं भणइ-सोहग्गरूवकलिए वरेहि वरपुरिसगंधहत्थीणं जो हु ते होइ हियय-दइओ।। १६३. उस क्रीडनधात्री ने बाएं हाथ में चमकते हुए दर्पण को लीला के साथ हाथ में लिया। वह सहज चिकना, तरुणों के मन में उत्सुकता जगाने वाला, रंग-बिरंगे मणि-रत्नों से निर्मित मूठ वाला था। उसने दर्पण में संक्रान्त बिम्बों के माध्यम से दृष्टिगोचर होने वाले प्रवर राजसिंहों को अपने दाएं हाथ से द्रौपदी को दिखाया। स्फुट, विशद, विशुद्ध, स्वर घोलना युक्त, गम्भीर और मधुर भाषिणी तथा उन सब पार्थिवों के माता-पिता, वंश, सत्त्व, सामर्थ्य, गोत्र, विक्रम, कान्ति, बहुविध आगमों का अध्ययन, माहात्म्य, रूप, कुल, शील आदि की जानकार उस क्रीड़नधात्री ने उनका कीर्तन किया। उसने सबसे पहले वृष्णि-पुंगव, वीर-पुरुष, त्रैलोक्य में बलिष्ठ, लाखों शत्रुओं के मान-मर्दक, भव-सिद्धिक पुरुषों में प्रवर पुण्डरीक, परम तेजस्वी, समुद्रविजय प्रमुख प्रवर दस दसार राजाओं के बल, वीर्य, रूप, यौवन, गुण, लावण्य, कीर्ति आदि का अधिगमन कर उसका कीर्तन किया। उसके पश्चात् उसने उग्रसेन यादवों के बल, वीर्य, आदि का कथन किया और कहा-पुरुषों में प्रवर गन्धहस्ती के समान इन राजाओं में से भी तुझे सौभाग्य और रूप से युक्त तथा हृदय को प्रिय लगे, उसी का तू वरण कर। दोवईए पंडव-वरण-पदं द्रौपदी के द्वारा पांडव का वरण-पद १६४. तए णं सा दोवई रायावरकण्णगा बहूणं रायवरसहस्साणं १६४. वह प्रवर राजकन्या द्रौपदी उन अनेक हजार राजाओं के बीचोंबीच मझमझेणं समइच्छमाणी-समइच्छमाणी पुव्वकयनियाणेणं होकर चलती-चलती पूर्व जन्म में कृत निदान से प्रेरित होती हुई जहां चोइज्जमाणी-चोइज्जमाणी जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, पांच पाण्डव थे, वहां आयी। वहां आकर वह उन पांचों पाण्डवों को उवागच्छित्ता ते पंच पंडवे तेणं दसद्ध-वण्णेणं कुसुमदामेणं उस पचरंगी पुष्प-माला से आवेष्टित-परिवेष्टित कर लिया। उन्हें आवेढियपरिवेढिए करेइ, करेत्ता एवं वयासी--एए णं मए पंच आवेष्टित-परिवेष्टित कर इस प्रकार कहा--मैने इन पांच पाण्डवों का पंडवा वरिया।। वरण किया है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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