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________________ नायाधम्मकहाओ ४७ यवणेसुय वणसडेसुय वणराईसु य नदीसुय नदीकच्छेसु य जूहेसु य संगमेसु य वावीसु य पोक्खरणीसु य दीहियासु य गुंजालियासु यसरेसु य सरपंतियासु य सरसरपंतियासु य वणयरेहि दिन्नवियारे बहूहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं संपरिखुडे बहुविहतरुपल्लवपउरपाणियतणे निभए निरुब्विग्गे सुहंसुहेणं विहरसि ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र १५८-१६० वनराजियों२४ नदियों, नदी तटों, जूहों, नदी के मुहानों, वापियों, पुष्करिणियों, दीर्घिकाओं, गुजालिकाओं, सरोवरों, सरोवर-पंक्तियों, सरोवर से संलग्न सरोवर पंक्तियों में और वनचरों में मुक्त विचरण करता हुआ, बहुत से हाथियों यावत् कलभों के साथ, उनसे संपरिवृत हो, नाना प्रकार के तरुपल्लव तथा प्रचुर जल और तृणों को प्राप्त करता हुआ, निर्भय और निरुद्विग्न हो, सुखपूर्वक विहार कर रहा था। १५९. तए णं तुमं मेहा! अण्णया कयाइ पाउस-वरिसारत्त-सरद- हेमंत-वसंतेसु कमेण पंचसु उऊसु समइक्कतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले मासे पायवघंससमुट्ठिएणं सुक्कतण-पत्त-कयवर-मास्यसंजोगदीविएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणदव-जाल-संपलित्तेसु वणंतेसु धूमाउलासु दिसासु महावाय-वेगेणं संघट्टिएसु छिण्णजालेसु आवयमाणेसु पोल्लरुक्खेसु अंतो-अंतो झियायमाणेसु मय-कुहिय-विणट्ठ किमिय-कद्दम-नईवियरगज्झीणपाणीयंतेस वर्णतेसु भिंगारकदीणकंदिय-रवेसु खरफरुस-अणिट्ठ-रिट्ठवाहित्त-विहुमग्गेसु दुमेसु तण्हावस-मुक्कपक्ख-पायडियजिब्भतालुय-असंपुडियतुंड-पक्खिसंघेसु ससंतेसु गिम्हुम्हउण्हवाय--खरफरुसचंडमारुय-सुक्कतणपत्तकयवर-वाउलिभमंतदित्तसंभंतसावयाउल-मिगतण्हाबद्धचिंधपट्टेसु गिरिवरेसु संवट्टइएसु तत्थ-मिय-ससय-सरीसिवेसु अवदालियवयणविवरनिल्लालियग्गजीहे महंततुंबइय-पुण्णकण्णे संकुचियथोर-पीवरकरे ऊसिय-नंगूले पीणाइय-विरसरडिय-सद्देणं फोडयंतेव अंबरतलं, पायदद्दरएणं कंपयंतेव मेइणितलं, विणिम्मुयमाणे य सीयर, सव्वओ समंता वल्लिवियाणाई छिंदमाणे, रुक्खसहस्साई तत्थ सुबहूणि नोल्लयंते, विणट्टरटेव्व नरवरिंदे, वायाइद्धेव्व पोए, मंडलवाएव्व परिब्भमते, अभिक्खणं-अभिक्खणं लिंडनियरं पमुंचमाणे-पमुंचमाणे बहूहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं दिसोदिसिं विप्पलाइत्था॥ १५९. मेघ! किसी समय तूं पावस, वर्षा, शरद, हेमन्त और वसन्त क्रमश: इन पांचों ऋतुओं के बीत जाने पर, ग्रीष्म ऋतु के समय ज्येष्ठ मास में १२५वृक्षों के परस्पर संघर्षण से समुत्थित सूखे घास-पात, कचरे और हवा के योग से प्रदीप्त, महाभयंकर आग के कारण वन-दव की ज्वालाओं से वन-प्रांत संप्रदीप्त हो गये। दिशाएं धूमाकुल हो गई। प्रचण्ड हवा के वेग से संचालित छिन्न ज्वालाओं के गिरने से पीले जीर्ण वृक्ष भीतर ही भीतर जलने लगे। कीचड़ से भर गए वन प्रांत की नदियों और गड्ढ़ों का पानी क्षीण हो गया। मृत-कुथित जीव-जन्तु विनष्ट कृमि और झिंगुरों के करुण-क्रन्दन के स्वर सुनाई देने लगे। वृक्षों के अग्र भाग विद्रुम की भांति लाल हो उठे। उन पर कौवे रूखे, कठोर और अनिष्ट स्वर में कांव-कांव करने लगे। पक्षी समूह प्यास से व्याकुल हो, पांखों को फैला, जीभ और तालु को प्रकट कर, मुंह खोल श्वास लेने लगा। ग्रीष्म की ऊष्मा कड़ी धूप, खर, परुष और प्रचण्ड हवा, सूखे घास-पात और कचरे से भरे हुए वातूल तथा इनके कारण घूमते हुए उन्मत्त और सम्भ्रांत श्वापदों के कारण पर्वत आकुल हो गये, उन पर मृगतृष्णा रूपी चिह्नपट्ट बंध गया। वहां प्रलयकारी अग्नि का दृश्य उपस्थित हो गया। हरिण, खरगोश और सांप त्रस्त हो उठे। उस समय तुम्हारा मुख विवर चौड़ा हो गया। जिहा का अग्रभाग बाहर निकल आया। बड़े-बड़े दोनों कान पूर्णरूपेण तुम्बाकार हो गए। स्थूल और पीवर सूण्ड संकुचित हो गई। पूंछ ऊपर उठ गई। ढोल की भांति विरस और रुदनपूर्ण चिंघाड़ से मानो अम्बरतल फोड़ रहा था। पादघात से मानो मेदिनीतल को कम्पित कर रहा था। मुंह से जलकणों को छोड़ रहा था। चारों ओर वल्लि-वितानों को तहस-नहस कर रहा था। बहुत सारे हजारों-हजारों वृक्षों को उखाड़ता हुआ, राज्य भ्रष्ट नरपति, वायु से प्रकम्पित पोत और मण्डल वायु की भांति चक्कर काट रहा था। बार-बार लीद करता हुआ, बहुत सारे हाथियों यावत् कलभों के साथ इधर-उधर भागने लगा। १६०. तत्थ णं तुमं मेहा! जुण्णे जरा-जज्जरिय-देहे आउरे झंझिए पिवासिए दुब्बले किलते नट्ठसुइए मूढदिसाए सयाओ जूहाओ विप्पहूणे वणदवजालापरद्धे उण्हेण य तण्हाए म छुहाए य परब्भाहए समाणे भीए तत्थे तसिए उव्विग्गे संजायभए सव्वओ समंता आघावमाणे परिधावमाणेएगंचणंमहंसरंअप्पोदगंपंकबहुलं १६०. मेघ! उस समय तूं जीर्ण, जरा-जर्जरित देह वाला, आतुर, भूखा-प्यासा, दुर्बल, क्लांत, स्मृति-शून्य और दिग्मूढ हो, अपने यूथ से बिछुड़ गया। वहां दावानल की लपटों से पीड़ित तथा गर्मी, प्यास और भूख से बाधित होने पर तूं भीत, त्रस्त, शुष्क, उद्विग्न २५ और भयाक्रांत होकर चारों ओर भाग दौड़ करता हुआ, पानी पीने के लिए घाट रहित एक विशाल सरोवर में Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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