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________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र १६०-१६५ अतित्थेणं पाणियपाए ओइण्णे। तत्थ णं तुम मेहा! तीरमइगए पाणियं असंपत्ते अंतरा चेव सेयंसि विसण्णे। तत्थ णं तुमं मेहा! पाणियं पाइस्सामि त्ति कटु हत्थं पसारेसि । से वि य ते हत्थे उदगं न पावइ । तए णं तुम मेहा! पुणरवि कायं पच्चुद्धरिस्सामि त्ति कटु बलियतरायं पंकसि खुत्ते॥ नायाधम्मकहाओ उतरा। उसमें पानी कम था और दलदल अधिक था। मेघ! तब तूं किनारे से आगे चला गया। पानी तक नहीं पहुंचा। बीच में ही दलदल में धंस गया। मेघ! तब तूने “पानी पीऊगां"--ऐसा सोचकर अपनी सूंड फैलाई। पर तेरी सूंड पानी तक नहीं पहुंच पाई। मेघ! तब "अपने शरीर को दलदल से निकालूगां"--ऐसा सोचकर तूं ने पुनरपि बल लगाया, किन्तु तू और अधिक पंक-निमग्न हो गया। १६१. तए णं तुम मेहा! अण्णया कयाइ एगे चिरनिज्जूढए गयवरजुवाणए सगाओ जूहाओ कर-चरण-दंत-मुसलप्पहारेहिं विप्परद्धे समाणे तं चेव महद्दहं पाणीयपाए समोयरइ । तए णं से कलभए तुम पासइ, पासित्ता तं पुव्ववेरं सुमरइ, सुमरित्ता आसुरत्ते रुटे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे जेणेव तुमं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुमं तिक्खेहिं दंतमुसलेहिं तिक्खुत्तो पिट्ठओ उठुभइ, उठुभित्ता पुव्वं वेरं निज्जाएइ, निज्जाएत्ता हठ्ठतुढे पाणीयं पिबइ, पिबित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।। १६१. मेघ! किसी समय तेरे यूथ से बहुत समय पहले भ्रष्ट हुआ एक प्रवर युवा हाथी, जिसे तूने अपनी सूंड, पांव और दंत-मूसलों का प्रहार कर, अपने यूथ से निकाल दिया था, जल पीने के लिए उसी सरोवर में उतरा। उस कलभ ने तुझे देखा। देखते ही उसे पूर्व वैर की स्मृति हो आयी। पूर्व वैर की स्मृति होते ही वह तत्काल क्रोध से तमतमा उठा। वह रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से प्रज्ज्वलित होकर जहां तू था, वहां आया। आकर तेरी पीठ में तीन बार दंत मूसलों से प्रहार किया। प्रहार कर उसने अपने पूर्व वैर का बदला लिया। बदला लेकर हृष्ट-तुष्ट हो उसने पानी पीया। पानी पीकर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। १६२. तए णं तव मेहा! सरीरगंसि वेयणा पाउन्भवित्था--उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरित्था। १६२. मेघ! तब तेरे शरीर में उज्ज्वल,१२८ विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, रौद्र, दु:खद और दुःसह वेदना प्रादुर्भूत हुई। शरीर में पित्तज्वर हो गया। समूचे शरीर में दाह व्याप्त हो गई। भगवया मेरुप्पभ-भवनिरूवण-पदं १६३. तए णं तुम मेहा! तं उज्जलं विउलं कक्खडं पगाढं चंडं दुक्खं दुरहियासं सत्तराइंदियं वेयणं वेदेसि, सवीसं वाससयं परमाउयं पालइत्ता अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्ढभरहे गंगाए महानईए दाहिणे कूले विंझगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहत्थिणा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए जणिए। भगवान द्वारा मेरुप्रभ-भव का निरूपण-पद १६३. तब मेघ! तूं ने सात दिन-रात तक उस उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, रौद्र, दु:खद और दुःसह वेदना को भोगा। एक सौ बीस बरस की परम आयु को भोग, तूं आर्त, दुःख से आर्त और कामना से आर्त होकर, मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, उसी जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष वहां के दक्षिणार्द्ध भरत, महानदी गंगा के दक्षिण तट और विन्ध्याचल की तलहटी में, एक मत्त प्रवर गंध हस्ती से, एक प्रवर हथिनी की कुक्षि में गज-कलभ के रूप में उत्पन्न हुआ। १६४. तए णं सा गयकलभिया नवण्हं मासाणं वसंतमासंसि तुमं पयाया॥ १६४. उस तरुण हथिनी ने नौ मास बीत जाने पर बसंत मास में तुझे जन्म दिया। १६५. तए णं तुम मेहा! गब्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए १६५. मेघ! गर्भवास से मुक्त होते ही तू गज-कलभ बन गया। तूं रक्तोत्पल यावि होत्था--रत्तुप्पल-रत्तसूमालए जासुमणाऽरत्तपालियत्तय- जैसा लाल और सुकुमार था। तूं जवाकुसुम, आरक्त-पारिजातपुष्प, लक्खारस-सरसकुंकुम-संझब्भरागवण्णे, इट्टे नियगस्स जूहवइणो, लाक्षारस, सरस कुंकुम और सन्ध्याकालीन अभ्रराग जैसे वर्णवाला और गणियार-कणेरु-कोत्थ-हत्थी अणेगहत्थिसयसंपरिखुडे रम्मेसु अपने यूथपति का इष्ट था। तूं अपनी समकक्ष हथिनियों के उदर को गिरिकाणणेसु सुहंसुहेणं विहरसि। सूण्ड से सहलाता हुआ तथा सैकड़ों हाथियों से घिरा हुआ सुरम्य गिरि काननों में सुखपूर्वक रहता था। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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