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नायाधम्मकहाओ
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प्रथम अध्ययन : सूत्र १६६-१७१ १६६. तए णं तुम मेहा! उम्मुक्कबालभावेजोव्वणगमणुप्पत्ते जूहवइणा १६६. मेघ! तूने शैशव को लांघकर जब यौवन में प्रवेश किया, तब यूथपति कालधम्मुणा संजुत्तेणं तं जूहं सयमेव पडिवज्जसि ।।
मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब तू स्वयं उस यूथ का अधिपति बन गया।
१६७. तए णं तुम मेहा! वणयरेहिं निव्वत्तियनामधेज्जे सत्तुस्सेहे
नवायए दसपरिणाहे सत्तंगपइट्ठिए सोम-सम्मिए सुरूवे पुरओ उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्ठओ वराहे अइयाकुच्छी अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराहरकरे धणुपट्ठागितिविसिट्ठपुढे अल्लीण-पमाणजुत्त-वट्टिय-पीवर-गत्तावरे अल्लीण-पमाणजुत्त-पुच्छे पडिपुण्ण-सुचारु कुम्मचलणे पंडुर-सुविसुद्ध-निद्ध-निरुवहयविंसतिनहे चउदंते मेरुप्पभे हत्थिरयणे होत्था। तत्थ णं तुम मेहा! सत्तसइयस्स जूहस्स आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे अभिरमेत्था।
१६७. मेघ! तब तूं मेरुप्रभ नाम का हस्तिरत्न था। तेरा यह नाम वनवासी
लोगों ने रखा। तूं सात हाथ ऊंचा, नौ हाथ लंबा, दस हाथ चौड़ा, सात अंगों से प्रतिष्ठित, सौम्य, प्रमाणोपेत अंगों वाला, सुरूप, आगे से ऊंचा, उन्नत सिर वाला, बैठने में सुखकर, सूअर के समान झुके हुए पृष्ठ भाग वाला और बकरी की भांति उन्नत पेट वाला था। पेट में सलवटें नहीं थी। वह लटक नहीं रहा था। गणेश की भांति अधर और शुण्डादण्ड लम्बे थे। पीठ विशिष्ट धनुषपृष्ठ के आकार जैसी थी। शरीर का अपर भाग सुव्यवस्थित, प्रमाणयुक्त, वर्तुल और पुष्ट था। पूंछ सुव्यवस्थित और प्रमाणयुक्त थी। चरण प्रतिपूर्ण, सुन्दर और कछुए की भांति उभरे हुए थे। बीसों नख श्वेत, साफ, चिकने और निरुपहत थे और दांत चार थे।
मेघ! वहां तूं सात सौ हाथियों के यूथ का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व, आज्ञा-ऐश्वर्य और सेनापतित्व करता हुआ, उसका पालन करता हुआ अभिरमण कर रहा था।
१६८. तए णं तुम मेहा! अण्णया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले
(मासे पायवघंससमुट्ठिएणं सुक्कतण-पत्त-कयवर-मारुयसंजोगदीविएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं?) वणदव-जाला-पलितेसु वर्णतेसु धूमाउलासु दिसासु जाव मंडलवाएव्व परिन्भमते भीए तत्ये तसिए उव्विग्गे संजायभए बहूहिं हत्थीहि य हत्थिणियाहि य लोट्टएहि य लोट्टियाहि य कलभएहि य कलभियाहि य सद्धिं संपरिवडे सव्वओ समंता दिसोदिसिं विप्पलाइत्था।
१६८. मेघ! किसी समय ग्रीष्म ऋतु के समय ज्येष्ठमास में (वृक्षों के
परस्पर संघर्षण से समुत्थित, सूखे घास पात, कचरे और हवा के योग से प्रदीप्त, महाभंयकर आग के कारण?) वनदव की ज्वालाओं से वन प्रांत संप्रदीप्त हो गये। दिशाएं धूमाकुल हो गयी, यावत् मण्डलवायु की भांति चक्कर काटता हुआ तूं भीत, त्रस्त, तषित, उद्विग्न और भयाक्रांत होकर बहुत से हाथियों, हथिनियों, छोटे शिशुओं और वय: प्राप्त कलभों के साथ, उनसे संपरिवृत हो, चारों ओर इधर-उधर भागने लगा।
१६९. तए णं तव मेहा! तं वणदवं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए
चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--कहि णं मन्ने मए अयमेयारूवे अग्गिसंभमे अणुभूयपुवे?
१६९. मेघ! उस वनदव को देखकर तेरे मन में इस प्रकार का आन्तरिक
चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--'लगता है मैने इस प्रकार के अग्नि संभ्रम का कभी पहले अनुभव किया है।
१७०. तए णं तव मेहा! लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं अज्झवसाणेणं १७०. मेघ! उस समय तेरी लेश्या विशुद्ध हो रही थी। अध्यवसाय शोभन
सोहणेणं सुभेणं परिणामेणं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं और परिणाम शुभ था | जाति स्मृति के आवारक कर्मों का ईहा-पूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सन्निपुव्वे जाईसरणे क्षयोपशम होने पर, ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते-करते समुप्पज्जित्था॥
तुझे समनस्क जन्मों को जानने वाला 'जाति-स्मृति' ज्ञान उत्पन्न हुआ।
१७१. तए णं तुम मेहा! एयमहूँ सम्म अभिसमेसि-एवं खलु मया
अईए दोच्चे भवग्गहणे इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्दगिरिपायमूले जाव सुमेरुप्पभे नाम हत्थिराया होत्था। तत्य णं मया अयमेयारूवे अग्गिसंभमे समणुभूए।।
१७१. मेघ! तब तुझे यह भलीभांति अवगत हो गया--मैं अतीत में इससे
पूर्व दूसरे भव में इसी जम्बूद्वीप, भारतवर्ष और वैतादयगिरि की तलहटी में यावत् सुमेरुप्रभ नामक हस्तिराज था। वहां मैंने इस प्रकार के अग्नि संभ्रम का अनुभव किया था।
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