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नायाधम्मकहाओ
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सत्रहवां अध्ययन : सूत्र ३७ ३७. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं ३७. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति सम्प्राप्त श्रमण सत्तरसमस्स नायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते॥
भगवान महावीर ने ज्ञाता के सत्रहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया -त्ति बेमि है।
- ऐसा मैं कहता हूँ।
वृत्तिकृता समुद्धता निगमनगाथा
जह सो कालियदीवो, अणुवमसोक्खो तहेव जइ-धम्मो। जह आसा तह साहू, वणियव्व अणुकूलकारिजणा ।।
वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन गाथा-- १. कालिकद्वीप के समान अनुपम सुख देने वाला है--मुनि धर्म । अश्वों के
समान है--साधु और व्यापारियों के समान है--अनुकूल व्यवहार करने वाले प्रियजन।
जह सद्दाइ-अगिद्धा, पत्ता नो पासबंधणं आसा। तह विसएस अगिद्धा, वझंति न कम्मणा साहू।२॥
२. जैसे शब्दादि विषयों में गृद्ध न होने वाले अश्व पाशबन्धन को प्राप्त
नहीं हुए, वैसे ही विषयों में गृद्ध न होने वाले मुनि कर्म-पाश में नहीं
बंधते।
जह सच्छंदविहारो, आसाणं तह इहं वरमुणीणं। जर-मरणाइ-विवज्जिय, सायत्ताणंदनिव्वाणं ।।३।।
३. जैसे उन अश्वों का विहार सदा स्वतंत्र रहा, वैसे ही यहां प्रवर मुनिजन
जरा और मृत्यु से रहित, स्वतंत्र, आनन्द दायक निर्वाण का अनुभव करते हैं।
जह सद्दाइसु गिद्धा, बद्धा आसा तहेव विसयरया। पावेंति कम्मबंध, परमासुह-कारणं घोरं ।।४॥
४. जैसे शब्दादि विषयों में गृद्ध अश्व बन्धन को प्राप्त हुए, वैसे ही
विषय-रत प्राणी परम दु:ख के हेतुभूत घोर कर्म-बन्धन को प्राप्त होते
जह ते कालियदीवा, णीया अण्णत्थ दुहगणं पत्ता। तह धम्म-परिन्भट्ठा, अधम्मपत्ता इहं जीवा ।।
५. जैसे कालिकद्वीप से अन्यत्र ले जाये गये वे अश्व दु:ख समूह को प्राप्त
हुए, वैसे ही धर्म से परिभ्रष्ट और अधर्म को प्राप्त जीव इस संसार में दुःख भोगते हैं।
पावेंति कम्म-नरवइ-वसया संसारवाहियालीए। आसप्पमद्दएहिं व, नेरइयाईहिं दुक्खाई।।६।।
६. वे भव परम्परा में बहने वालों की श्रेणी में कर्म रूप राजा के
अधीन होकर अश्व-प्रशिक्षकों के समान नैरयिक प्राणियों के द्वारा दु:खों को प्राप्त होते हैं।
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