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________________ सत्रहवां अध्ययन : गाथा ९-२० उउ-भयमाणसुहेसु य, सविभव-हिययमण-निव्वुइकरेसु। फासेसु रज्जमाणा, रमंति फासिंदिय-वसट्टा ।। ३७० नायाधम्मकहाओ ९. स्पर्शनन्द्रिय की अधीनता से आर्त बने प्राणी विविध ऋतुओं में सेवन-सुखद तथा वैभवशाली व्यक्तियों के हृदय और मन को शान्ति देने वाले स्पर्शों में अनुरक्त होकर प्रमुदित होते हैं। फासिंदिय-दुद्दतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं खणइ मत्थयं कुंजरस्स लोहंकुसो तिक्खो।।१०।। १०. स्पर्शनन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष है, जैसे--एक लोहमय तीक्ष्ण अंकुश हाथी के मस्तक को विदीर्ण कर देता है। कल-रिभिय-महुर-तंती-तल-ताल-वंस-कउहाभिरामेसु । सद्देसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए ।।११।। ११. जो प्राणी प्रधान और अभिराम शब्द उत्पन्न करने वाले तंत्री, तल-ताल और बांसुरी के कमनीय, स्वर-घोलना युक्त और मधुर शब्दों में गृद्ध नहीं होते वे वशात मरण को प्राप्त नहीं होते। थण-जहण-क्यण-कर-चरण-नयण-गब्विय-विलासियगी। रूवेसु जे न रत्ता, वसट्टमरणं न ते मरए ।।१२।। १२. जो प्राणी स्त्रियों के स्तन, जघन, मुख, हाथ, पांव, नयन तथा गर्वित एवं विलासपूर्ण गति वाले रूपों में अनुरक्त नहीं होते, वे वशात मरण को प्राप्त नहीं होते। अगरुवर - पवर - धूवण - उउयमल्लाणुलेवणविहीसु। गंधेसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए।।१३।। १३. जो प्राणी काली अगर, प्रवर-धूप, ऋतु-प्राप्त पुष्प-मालाओं और विलेपन वाले गन्ध द्रव्यों में गृद्ध नहीं होते, वे वशात मरण को प्राप्त नहीं होते। तित्त-कडुयं, कसायं, महुरं बहुखज्ज-पेज्ज-लेजोसु। आसायंमि न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए।१४ ।। १४. जो प्राणी तीते, कडुवे, कषैले और मीठे बहुत प्रकार के खाद्य, पेय, एवं लेह्य पदार्थों के आस्वादन में गृद्ध नहीं होते, वे वशात मरण को प्राप्त नहीं होते। उउ-भयमाणसुहेसु य, सविभव-हिययमण-निव्वुइकरेसु। फासेसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए।५।। १५. जो प्राणी विविध ऋतुओं में सेवन-सुखद तथा वैभवशाली व्यक्तियों के हृदय और मन को शान्ति देने वाले स्पर्शों में गृद्ध नहीं होते, वे वशात मरण को प्राप्त नहीं होते। सद्देसु य भद्दय-पावएसु सोयविसयममुवगएसु । तुट्टेण व रुद्रुण व, समणेण सया न होयव्वं ।।६।। १६. श्रोत्र-विषय के प्राप्त होने पर प्रिय एवं अप्रिय शब्दों में श्रमण कभी ___ भी तुष्ट एवं रुष्ट न हो। रूवेसु य भद्दय-पावएसु चक्खुविसयमुवगएसु । तुटेण व रुद्रेण व, समणेण सया न होयव्वं ।।१७।। १७. चक्षु विषय के प्राप्त होने पर प्रिय एवं अप्रिय रूपों में श्रमण कभी भी तुष्ट एवं रुष्ट न हो। गंधेसु य भद्दय-पावएसु घाणविसयमुवगएसु । तुटेण व रुद्वेण व, समणेण सया न होयव्वं ।।१८॥ १८. घ्राण-विषय के प्राप्त होने पर प्रिय एवं अप्रिय गन्धों में श्रमण कभी भी तुष्ट एवं रुष्ट न हो। रसेसु य भद्दय-पावएसु जिब्भविसयमुवगएसु । तुटेण व रुद्वेण व, समणेण सया न होयव्वं ।।१९।। १९. रसना विषय के प्राप्त होने पर प्रिय एवं अप्रिय रसों में श्रमण कभी भी तुष्ट और रुष्ट न हो। फासेसु य भद्दय-पावएसु कायविसयमुवगएसु । तुढेण व रुद्रुण व, समणेण सया न होयव्वं ।।२०।। २०. काय विषय के प्राप्त होने पर प्रिय एवं अप्रिय स्पर्शों में श्रमण कभी भी तुष्ट एवं रुष्ट न हो। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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