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________________ सत्रहवां अध्ययन : सूत्र १४-१६ ३६४ तलपत्त-रिट्ठवण्णा य, सालिवण्णा य भासवण्णा य केइ । जंपिय-तिल-कीडगा य, सोलोय-रिटुगा य पुंड-पइया य कणग-पिट्ठा य केइ ॥२॥ चक्कागपिट्ठवण्णा, सारसवण्णा य हंसवण्णा य केइ। केइत्थ अब्भवण्णा, पक्कतल-मेघवण्णा य बाहुवण्णा केइ ॥३॥ संझाणुरागसरिसा, सुयमुह-गुंजद्धराग-सरिसत्य केइ । एलापाडल-गोरा, सामलया-गवलसामला पुणो केइ ।४॥ नायाधम्मकहाओ कुछ गेहूं जैसे गौरांग और गौरी जाति के पाटल पुष्प जैसे गौर थे। कुछ प्रवाल जैसे रक्तवर्ण के और कुछ धूसरवर्ण वाले थे। २. कुछ अश्व ताडपत्र और रीठा जैसे वर्णवाले थे। कुछ शालि चावल जैसे श्वेत वर्ण और कुछ भस्म अथवा भाषपक्षी जैसे वर्णवाले थे। कुछ पुराने तिलों में उत्पन्न कीड़ों जैसे रंग के और कुछ प्रभास्वर रिष्टक रत्न जैसे चमकीले थे। कुछ अश्व श्वेत पांवों वाले और कुछ सुनहरी पीठ वाले थे। ३. कुछ अश्व चकवे की पीठ जैसे, कुछ सारस और कुछ हंस जैसे वर्णवाले थे। कुछ अश्व अभ्र जैसे वर्ण के, कुछ परिपक्व मेघ जैसे वर्ण के और कुछ नाना वर्ण वाले थे। ४. कुछ अश्व सन्ध्या राग, तोते की चोंच और गुजार्ध जैसे रक्तिम थे। कुछ एला और पाटल जैसे गौर और कुछ प्रियङ्गुलता एवं महिष-शृंग जैसे श्याम थे। अन्य भी अनेक प्रकार के अश्व थे जिनका किसी एक वर्ण से निर्देश नहीं किया जा सकता, जैसे श्याम, कासीस (राग जैसे) वर्ण वाले और चितकबरे। वे सब पूर्ण निर्दोष आकीर्णक नाम की अश्व जाति और कुल से सम्पन्न, विनीत और मात्सर्य रहित थे। वे प्रवर अश्व उपदिष्ट क्रम के अनुसार ही चलने वाले थे। प्रशिक्षण के द्वारा विनय को उपलब्ध थे। वे लंघन, वलगन धावन, धोरण, त्रिपदी और वेगवती गति में प्रशिक्षित थे। अधिक क्या वे मन से भी सदा उछलते रहते थे। उन व्यापारियों ने सैंकड़ों अश्व देखे। बहवे अण्णे अणिद्देसा, सामा कासीसरत्तपीया, अच्चंतविसुद्धा वि यणं आइण्णग-जाइ-कुल-विणीय-गयमच्छरा। हयवरा जहोवएस-कम्मवाहिणो वि य णं। सिक्खा विणीयविणया, लंघण-वग्गण-धावण-धोरण-तिवई जईण-सिक्खिय-गई। किं ते? मणसा वि उव्विहंताई अणेगाई आससयाई पासंति।। १५. तए णं ते आसा वाणियए पासंति, तेसिं गंधं आघायंति, १५. उन अश्वों ने उन व्यापारियों को देखा, उनकी गन्ध को सूंधा। गन्ध आघाइत्ता भीया तत्था उब्विग्गा उव्विग्गमणा तओ अणेगाई सूंघकर वे भीत, त्रस्त, उद्विग्न और उद्विग्नमन वाले होकर अनेक जोयणाई उन्भमंति। तेणं तत्थ पउर-गोयरा पउर-तणपाणिया योजन दूर भाग गए। वहां उन्होंने प्रचुर गोचर भूमि (चरागाह) और निन्भया निरुव्विग्गा सुहंसुहेणं विहरंति।। प्रचुर घास-पानी को प्राप्त किया और निर्भय, निरुद्विग्न रह कर सुखपूर्वक विहार करने लगे। संजत्तियाणं पुणरागमण-पदं सांयात्रिकों का पुनरागमन-पद १६. तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा अण्णमण्णं एवं वयासी--किण्णं. १६. वे सांयात्रिक पोत-वणिक् परस्पर इस प्रकार कहने लगे--देवानुप्रियो! अम्हं देवाणुप्पिया! आसेहिं? इमेणं बहवे हिरण्णागरा य सुवण्णागरा हमें अश्वों से क्या प्रयोजन? ये बहुत-सी हिरण्य, सुवर्ण, रत्न और य रयणागरा य वइरागरा य । तं सेयं खलु अम्हं हिरण्णस्स य वज्र की खानें रहीं। अत: हमारे लिए उचित है, हम हिरण्य, सुवर्ण, सुवण्णस्य य रयणस्स य वइरस्स य पोयवहणं भरित्तए त्ति कटु रत्न और वज्र से अपना पोत वहन भर लें--उन्होंने परस्पर यह अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेत्ति पडिसुणेत्ता हिरण्णस्स य सुवण्णस्स अर्थ स्वीकार किया। स्वीकार कर हिरण्य, सुवर्ण, रत्न और वज्र य रयणस्स य वइरस्स य तणस्स य कट्ठस्स य अन्नस्स य पाणियस्स तथा घास, काठ, अन्न और जल से पोतवहन भरे। भरकर य पोयवहणं भरेंति, भरेत्ता पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव प्रदक्षिणानुकूल पवन के साथ जहां 'गम्भरीक' पोतपत्तन (बंदरगाह) गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं था, वहां आए। वहां आकर जहाज का लंगर डाला। लंगर डालकर लंबेति, लबत्ता सगडी-सागडं सज्जेंति, सज्जेत्ता तं हिरण्णं च अनेक छोटे बड़े वाहन तैयार किये। तैयार कर नौकाओं द्वारा सुवण्णं च रयणं च वइरंच एगट्ठियाहिं पोयवहणाओ संचारेंति, जहाज से हिरण्य, सुवर्ण, रत्न और वज्र संचालित किया। संचालित संचारेत्ता सगडी-सागडं संजोएंति, जेणेव हत्थिसीसए नयरे तेणेव कर छोटे-बड़े वाहनों को भरा। जहां हस्तिशीर्ष नगर था, वहां आये Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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