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________________ नायाधम्मकहाओ असे कप्मेति ।। १२७. तए णं तस्य मेहस्स कुमारस्स माया महरिहेणं हंसलक्खणेणं पडसाडएणं अग्गकेसे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदणं पक्खाले पक्खालेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चाओ दलयइ, दत्ता सेवाए पोत्तीए बंध, बंधित्ता रयणतमुग्गयस पक्लिव मंजूसाए पक्खिवइ, हार - वारिधार - सिंदुवार - छिन्नमुत्तावलिप्पगासाई अंसूइं विणिम्मुयमाणी - विणिम्मुयमाणी, रोयमाणी - रोयमाणी कंदमाणी कंदमाणी, वित्तयमाणी विलवमाणी एवं क्यासी एस णं अम्हं मेहस्स कुमारस्स अब्भुदासु व उत्सवेसु य पसवेसु प तिहीसु य छणेसु य जन्नेसु य पव्वणीसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सह ति कट्टु उस्सीसामूले ठवेइ ।। -- मेहस्स अलंकरण - पदं १२८. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो उत्तरावक्कमणं सीहासणं यावेंति, मेहं कुमारं दोच्चं पि तच्च पि सेयापीएहिं कलसेहिं ण्हावेति व्हावेत्ता पम्हलसूमालाए गंधकासाइयाए गायाई लूहेंति, तूहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपति, अणुलिपित्ता नासा - नीसासवाय वोज्नं वरणगरपट्टणुग्मयं कुसलणरपससितं अस्सतालापेलवं वायरियकणग-खचियंतकम् हंसलक्खणं पडसाडगं नियंसेति, हारं पिणद्धेति, अद्धहारं पिणद्धेति, एवं --एगावलिं मुत्तावलिं कणगावलिं रयणावलिं पालंबं पायपलंब कडगाई डुडिगाई केऊराई अंगयाई दसमुद्रियाणंतयं कहिसुत्तयं कुंडलाई चूडामणिं रयणुक्कडं मउडं--पिणद्धेति, पिणद्धेत्ता थिम - वेढ़िम- पूरिम- संघाइमेणं-- चउव्विहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिय अलकिय विभूतियं करेति । -- मेहस्स अभिनिक्स्वमणमहुस्सव- पर्द १२९. तए गं से सेगिए राया कोटुंबियपुरिसे सदावेद, सदावेत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगलंभसय-सण्णिविट्ठ लीलट्ठिय- सालभंजियागं ईहामिय-उसभ-तुरय-नर-मगरविहग-वालग - किन्नर - रुरु- सरभ- चमर- कुंजर - वणलय- पउमलयभत्तिचित्तं घंटावलि महुर-मणहरसरं सुभ-कंत दरिसणिज्जं निउणोविय- मिसिमिसेंत मणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं अन्भुग्गय- वइरवेड्या परिगयाभिरामं विज्जाहरजमल जंतजुत्त पिव अच्चीसहस्तमालणीयं स्वगसहस्तकलियं भिमाणं भिम्मिसमाणं चक्खुल्लोपणलेस्सं सुहफासं सस्सिरीपरूवं सिन्धं तुरियं चवलं वेइयं Jain Education International ३९ - - प्रथम अध्ययन : सूत्र १२६-१२९ शुद्ध वस्त्र से मुख को बांधा। बांधकर परम यत्न से कुमार मेघ के चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमणप्रायोग्य अग्रकेशों को काटा। १२७. कुमार मेघ की माता ने महामूल्यवान हंस लक्षण पट शाटक में १० अग्र केशों को ग्रहण किया। ग्रहणकर सुरभित गन्धोदक प्रक्षालन किया। प्रक्षालन कर सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया । चर्चित कर श्वेत वस्त्र में बांधा, बांधकर रत्न करण्डक में रखा। उस करण्डक को मंजुषा में रखा हार, जलधारा, सिन्दुवार, निर्गुण्डी के फूल और टूटी हुई मोतियों की लड़ी के समान, बार-बार आंसू बहाती रोती, क्रन्दन और विलाप करती हुई इस प्रकार बोली-- "अभ्युदय, उत्सव, जन्म-प्रसंग, पुण्यतिथि, इन्द्रोत्सव, यज्ञ और पर्वणी (पूर्णिमा आदि) तिथियों मेणा कुमार मेघ का यह अन्तिम दर्शन होगा ऐसा कहकर उस मंजूषा को अपने सिरहाने के नीचे रखा । मेघ का अलंकरण-पद 1 १२८. कुमार मेघ के माता-पिता ने उत्तराभिमुख सिंहासन की रचना करवायी । करवाकर कुमार मेघ को दूसरी तीसरी बार भी श्वेत और पीत कलशों से स्नान करवाया। स्नान करवाकर रोयेंदार सुकुमार, सुरभित गंध वस्त्र से गात्र को पोंछा पोंछकर सरस गोशीर्ष चंदन का गात्र पर अनुलेप किया। अनुलेप कर नासिका की नि:श्वास वायु से उड़ने वाला, प्रवर नगरों और पत्तनों में निर्मित, कुशल पुरुषों द्वारा प्रशंसित, अश्व की लार से भी अधिक प्रतनु, कोमल, किनार पर छेक आचार्यों द्वारा निकाली गयी सोने की कढ़ाई से युक्त एक हंस-लक्षण पट-शाटक पहनाया। हार और अर्द्ध हार पहनाया। इसी प्रकार एकावली मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, कण्ठा, पैरों तक लटकता हुआ कण्ठा, कड़े, बाजूबन्ध, केयूर, अंगद, दसों अंगुलियों में मुद्रिकाएं, करधनी, कुण्डल, चूड़ामणि और रत्नों से दीप्त मुकुट पहनाया। पहनाकर गुंथी (ग्रंथित) हुई, वेष्टित, पूरित और संहृत की हुई इन चार प्रकार की मालाओं से कुमार मेघ को कल्पवृक्ष की भांति अलंकृत, विभूषित कर दिया मेघ का अभिनिष्क्रमण महोत्सव - पद १२९. राजा श्रेणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय ! सैंकड़ों सम्भों से युक्त नृत्य करती पुतलियों से उत्कीर्ण, ईहामृग, बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगरमच्छ, पक्षी, सर्प, किन्नर, मृग, अष्टापद, चमरी गाय, हाथी, अशोक आदि की लता, पद्मलता- -इनकी भांतों से चित्रित, घण्टावली के मधुर और मनोहर स्वरवाली, शुभ, कमनीय, दर्शनीय, निपुण शिल्पियों द्वारा परिकर्मित, देदीप्यमान मणि और रत्नमय पण्टिका जाल से घिरी हुई, ऊपर उठी हुई वज्रमय वैदिका के योग से अभिराम मंत्र से संचालित विद्याधर युगल की प्रतिमा से युक्त, रत्नों की हजारों रश्मियों से . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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